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Act VI.]
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SAKUNTALA.



दुष्य॰। (चारों जोर देखता हुआ) हाय रे कोई मेरा धनुष लावे॥ (एक द्वारपाल राजा का धनुष वाण लेकर आया)

द्वारपाल। महाराज धनुष यह है॥ (दुष्यन्त ने धनुष वाण ले लिया)

(नेपथ्य में) तेरे कण्ठ के लोहू का प्यासा मैं तुझे ऐसे पछाडूंगा जैसे सिंह पशु को मारता है। अब बतला दुखियों की रक्षा के लिये धनुषधारणकरनेवाला दुष्यन्त कहां है जो तुझे बचावे॥

दुष्य॰। (क्रोथ से) यह पिशाच तौ मुझे भी चिनोती देता है। अरे नीच खड़ा रह। मैं आया। अब तेरी मृत्यु समीप पहुंची। (धनुष चढ़ाकर) पर्वतायन छत की गैल बताओ॥

द्वारपाल। गैल यह है महाराज॥(सब तुरंत बाहर गये)

[स्थान एक बड़ी चौड़ी छत]

(दुष्यन्त आया)

दुष्य॰। (चारों ओर देखकर) हाय यहां तौ कोई नहीं है॥

(नेपथ्य में) बचाओ। कोई मुझे बचाओ। महाराज मैं तो तुम्हें देखता हूं। तुम ही मुझे नहीं देख सकते हो। इस समय मैं ऐसा हो रहा हूं जैसे बिलाव का असा चूहा॥

दुष्य॰। मुझे तू नहीं सूझता है। तो क्या हुआ जिस अन्तर्ध्यान विद्या के बल से बैरी ने तुझे लोप कर रखा है उस को मिटाकर मेरा बाण बैरी को देख लेगा। माढव्य सावधान रहो। और तू अरे पिशाच मेरे शरणागत को न मार सकेगा। देख अब मैं यह बाण चढ़ाता है। यह तुझे बेधकर ब्राह्मण को ऐसे बचा लेगा जैसे हंस पानी में से दूध को निकाल लेता है"॥ (धनुष ताना)

(मातलि और माढव्य चार)

मातलि। महाराज इन बाणों के लिये आप के मित्र इन्द्र ने असुर बता दिये हैं॥ उन ही पर धनुष खैंचो। मित्रों पर स्नेह की दृष्टि चाहिये॥