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[Act VI.
SAKUNTALA.


दुष्य॰। (चकित होकर शस्त्र रख लिया) आहा इन्द्र के सारथी तुम भले आए॥

माढव्य। हाय यह तो बधिक की भांति मुझे मारे" डालता था। आप इस का आदर करते हो॥

मातलि। (मुसक्याकर) महाराज मैं इन्द्र का संदेसा लेकर आया हूं। सो सुन लो॥

दुष्य॰। कहो। मैं कान लगाकर सुनता हूं॥

मातलि। कालनेमि के वंश में दानवों का ऐसा एक गण प्रबल हुआ है कि उस का जीतना इन्द्र को कठिन हो रहा है॥

दुष्य॰। यह तौ मैं ने आगे ही नारद से सुन लिया है॥

मातलि। ऐसे शत्रुवंश को जब सौयज्ञकरनेवाला देवनायक न जीत सका तब जैसे सूर्य रैन का अन्धकार मिटाने को असमर्थ होकर चन्द्रमा से सहायता लेता है तैसे ही तुम को अपना मित्र जान बुलाया है। सो महाराज इस रथ पर चढ़ो और धनुष लेकर विजय को चलो॥

दुष्य॰। देवराज ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की है। इस से मैं अनाथ हुआ। परंतु तुम यह कहो कि मेरे सखा माढव्य को तुम ने इतना क्यों सताया॥

मातलि। आप को बहुत उदास देखकर चैतन्य करने के लिये मैं ने रोस दिलाया था। क्योंकि जैसे काट गिरने से अग्नि का तेज बढ़ता है और छेड़ने से सर्प फण उठाता है ऐसे ही तेजस्वी पुरुष छोह दिलाने से पराक्रम दिखाते हैं॥

दुष्य॰। (माढव्य से हौले) हे सखा देवपति की आज्ञोल्लङ्घन योग्य नहीं है। इस से तुम जाकर यह समाचार मन्त्री को सुना दो और कहो कि जब तक मेरा धनुष दूसरे कार्य में प्रवृत्त रहे तब तक अपनी बुद्धि से प्रजा की रक्षा करे॥