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[Act VII.
SAKUNTALA.


मात॰। आप को ऐसा ही कहना उचित है। (रथ को हौले हौले चलाया) हे राजा अपने स्वर्ग तक प्राप्त हुए यश की गुरुता देखो। जिन रङ्गों से सुरसुन्दरी अङ्गराग करती हैं उन ही से देवता आप के चरितों को कल्पलता के पत्तों पर स्वर्ग के गाने योग्य गीतों में लिख रहे हैं॥

दुष्य॰। (नम्रता में) हे मातलि दानवों को जीतने के उत्साह में इधर से जाते हुए मैं ने इस शुभ स्थान को भली भांति नहीं देखा था। अब तुम कहो इस समय पवन के कौन से मार्ग में चलते हैं॥

मात॰। यह वही मार्ग है जिस में आकाशगङ्गा के तट पर सूर्य चलता है और सब तारागण घूमते हैं। यह मार्ग परिवह पवन का है जो नक्षत्र ग्रहों का आधार है। और यही मार्ग विष्णु का दूसरा पैड़ था जब कि हरि ने अहङ्कारी बलि को छला था॥

दुष्य॰। यह शोभा देख मेरे रोम रोम" प्रसन्न हो गये हैं। (पहियों को देखकर) अब हम मेघों के मार्ग में चलते हैं॥

मात॰। यह आप ने क्योंकर जाना॥

दुष्य॰। रथ ही कहे देता है कि अब हम जलभरे बादलों में चलते हैं क्योंकि पहिये भीगे हैं और इन्द्र के घोड़ों के अङ्ग बिजली से चमकते हैं। मैं देखता हूं कि कोलाहल करते हुए चातक ऊंचे ऊंचे पहाड़ों की चोटियों से अपने घोंसले छोड़ छोड़ नीचे उतरते हैं॥

मात॰। ठीक है। अभी एक क्षण में आप अपने राज्य में पहुंचते हो॥

दुष्य॰। (नीचे को देखकर) स्वर्ग के घोड़ों के वेग से उतरने में यहां समस्त अचरज सा दिखाई देता है। अभी पृथी यहां से इतनी दूर है कि पहाड़ के शिखर और घाटों में कुछ अन्तर नहीं जान पड़ता। वृक्ष पत्रहीन से दृष्टि आते हैं नदियां श्वेत रेखा के समान दीखती हैं भूमण्डल ऐसा सूझता है मानो किसी बली ने ऊपर को गेंद बनाकर उछाल दिया है।