पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
90
[Act VII.
SAKUNTALA.


दुष्य॰। यहां इन्द्रलोक से भी अधिक सुख है। इस समय मेरा ध्यान ऐसा बंध रहा है मानो अमृत के कुण्ड में न्हाता हूं॥

मात॰। (रथ को ठहराकर) महाराज अब उतर लीजिये॥

दुष्य॰। (हर्ष सहित रथ से उतरकर) तुम रथ को छोड़कर कैसे चलोगे॥

मात॰। इस का मैं ने यत्न कर दिया है। आप से आप यहां खड़ा रहेगा। चलिये। मैं भी आप के साथ चलूंगा। महाराज इस मार्ग आओ और बड़े महात्मा तपस्वियों के स्थान देखो॥

दुष्य॰। जैसा आश्चर्य मुझे इन तपस्वियों के देखने से होता है वैसा ही इन के पवित्र आश्रम के दर्शन से सुख मिलता है। सत्य है शुद्ध जीवों को यही योग्य है कि कल्यवृक्षों के वन में पवन खाकर प्राण रक्खें। जिन नदियों का जल कनककमल के पराग से पीला दिखाई देता है उन में स्नान संध्या करें। जिन शिलाओं के टुकड़ों से रत्न बनते हैं उन पर बैठ कर ध्यान लगावें। अपनी इन्द्रियों को ऐसा बस में रक्खें कि कदाचित कोई बड़ी रूपवती अप्सरा भी आकर घेरे तौ मन न डिगे। जिन पदार्थों के लिये बड़े बड़े मुनीश्वर तप करते हैं सो इस आश्रम में प्राप्त हैं॥

मात॰। सत्पुरुषों की अभिलाषा सदा उत्तम से उत्तम वस्तु पाने के लिये बढ़ती रहती है। (एक ओर को फिर कर) कहो वृद्धशाकल्य इस समय महात्मा कश्यप ऋषि क्या कर रहे हैं। क्या दक्ष की बेटी ने जो पतिव्रतधर्म पूछा था उन से संभाषण करते हैं॥

दुष्य॰। तौ अभी कुछ ठहरना चाहिये॥

मात॰। (राजा की ओर देखकर) आप इस अशोकवृक्ष की छाया में विश्राम करिये। तब तक मैं आप के आने का संदेसा अवसर देखकर इन्द्र के पिता से कह आऊं॥

दुष्य॰ बहुत अच्छा। (मातलि गया और दुष्यन्त की दाहिनी भुजा फरकी) हे भुजा