SAKUNTALI.
[ACT VII.
बालक । पहले खिलौना दे दो । आओ कहां है । (हाथ पसारकर)
दुप्य० । (लड़के के हाथ को देखकर आप हो आप) आहा इस के हाथ में तो
चक्रवती के लक्षण" हैं । उंगलियों पर कैसा अद्भुत जाल है और
हथेली की शोभा प्रातकमल को भी लज्जित कर रही है।
दू तप०। हे सखी सुव्रता यह बातों से न मानेगा। जा तू । कुटी में
एक मिट्टी का मोर ऋषिकुमार शंकर के खेलने का रक्खा है। सो ले आ॥
प० तप० । मैं अभी लिये आती हूं ॥ (गई)
बालक। तब तक" मैं इसी सिंह के बच्चे से खेलूंगा ॥
ट्र तप० । (यालक को ओर देखकर ओर मुसक्या कर) तेरी बलैया लूं । अब त
इसे छोड़ दे॥
दुष्य । (शाप ही आप) इस लड़के के खिलाने की मेरा जी कैसा चाहता
है । (आह भरकर) धन्य हैं वे मनुथ जो अपने पुत्रों को कनियों " लेकर
उन के अङ्ग की धूल से अपनी गोद मैली" करते हैं और पुत्रों के
मुख निष्कारण हंसी से खुलकर उज्जल दांतों की शोभा दिखाते और
तुन्तुले वचन बोलते हैं।
दूं तप० । (उंगली उठाकर) क्यों रे ढीठ तू मेरी बात कान नहीं धरता
है । (इधर उधर देखकर) कोई ऋषि यहां है । (दुष्यन्त को देखा) अहो परदेसी
आओ । कृपा करके इस बली बालक के हाथ से सिंह के बच्चे को
छुड़ाओ ॥
दुष्य० । अच्छा । (लड़के के पास जाकर और हंसकर) हे ऋषिकुमार तुम ने
तपोवन के विरुद्ध यह आचरण क्यों सीखा है जिस से तुम्हारे कुल
को लाज आती है। यह तो काले सांप ही का धर्म है कि मलया-
गुरु" से लिपटकर उप्ते दूषित करे ॥ (लड़के ने सिंह को छोड़ दिया)
टू तप० । हे बटोही में ने तुम्हारा बहुत गुण माना "। परंतु जिस
को तुम ऋषिकुमार कहते हो सो ऋषि का वालक नहीं है।
दुप्प० । सत्य है । इस के काम ऐसे ही साहस के हैं कि यह ऋषिपुत्र
पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/१०८
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