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Act VII.]
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SAKUNTALA.

समय इस बालक का जातकर्म हुआ था तब महात्मा मरीचि के पुत्र कश्यप ने यह गंडा दिया था। इस में यह गुण है कि कदाचित धरती पर गिर पड़े तो इस बालक के मा बाप को छोड़ दूसरा कोई न उठा सके॥

दुष्य॰। और जो कोई उठा ले तो क्या हो॥

प॰ तप॰। तौ यह तुरंत सांप बनकर उस को डसे॥

दुष्य॰। तुम ने ऐसा होते कभी देखा है॥

दोनों तप॰। अनेक बार॥

दुष्य॰। (प्रसन्न होकर) तो अब मेरा मनोरथ पूरा हुआ॥ (लड़के को गोद में ले लिया)

दू॰ तप॰। आओ सुव्रता। ये सुख के समाचार चलके शकुन्तला को सुनावें। वह बहुत दिनों से वियोग के कठिन नेम कर रही है॥(दोनों बाहर गई)

बालक। छोड़ो छोड़ो। मैं अपनी माता के पास जाऊंगा॥

दुष्य॰। हे पुत्र तू मेरे संग चलकर अपनी माता को सुख दीजिये॥

बालक। मेरा पिता तो दुष्यन्त है। तुम दुष्यन्त नहीं हो।

दुष्य॰। तेरा यह विवाद भी मुझे प्रतीति कराता है॥

{{c|(वियोग के वस्त्र धारण किये और जटे हुए वालों की घेणी पीठ पर डाले शकुन्तला आई)

शकु॰। (आप हो आप) मैं सुन तौ चुकी हूं कि बालक के गंडे की दिव्यसामर्थ्य का गुण प्रगट हुआ। परंतु अपने भाग्य का कुछ भरोसा नहीं है। हां इतनी आशा है कि कहीं मिश्रकेशो का कहना सच्चा हो गया हो॥

दुष्य॰। (हर्म और शोक दोनों से) क्या योगिनी के भेष में यह प्यारी शकुन्तला है जिस का मुख विरह के नियमों ने पीला कर दिया है और वस्त्र मलीन पहने जटा कंधे पर डाले मुझ निर्दई का वियोग सहती है॥

शकु॰। (राजा की ओर देखकर और संशय करके) यह क्या मेरा ही प्राणपति है॥