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[Act VII.
SAKUNTALA.

जो वियोग की आंच से ऐसा कुम्भिला रहा है। जो मेरा पति नहीं है तौ कौन है जिस ने बालक का हाथ पकड़कर अपना कहा और मुझे दूषण लगाया। यह कौन है जिस को बालक के गंडे ने बाधा न करी॥

बालक। (दौड़ता हुआ शकुन्तला के पास जाकर) माता यह किसी के कहने से मुझे अपना पुत्र बताता है॥

दुष्य॰। हे प्यारी मैं ने तेरे साथ निटुराई तौ की। परंतु परिणाम अच्छा हुआ कि तैं ने मुझे पहचान लिया। जो हुआ सो हुआ। अब उस बात को भूल जा॥

शकु॰। (आप ही आप) अरे मन तू धीरज धर। अब मुझे भरोसा हुआ कि मेरे भाग्य ने ईषी छोड़ी। (प्रगट) हे आर्यपुत्र मेरी तौ यही अभिलाषा है कि तुम प्रसन्न रहो॥

दुष्य॰। प्यारी भ्रम में मुझे तेरी सुध न रही थी। सो आज दैव का बड़ा अनुग्रह है कि तू चन्द्रमुखी फिर मेरे संमुख आई जैसे ग्रहण के अन्त में रोहिणी फिर अपने प्यारे कलानिधि से मिलती है॥

शकु॰। महाराज की . . . . (इतना कहते ही गदगद बाणी होकर मांसू गिरने लगे)

दुष्य॰। हे सुन्दरी मैं ने जान लिया तू जय शब्द कहा चाहती थी। सो आंसुओं ने रोक लिया। परंतु मेरी जय होने में अब कुछ संदेह नहीं है क्योंकि आज तेरे मुख चन्द्र का दर्शन मिल गया॥

बालक। माता यह पुरुष कौन है॥

शकु॰। बेटा मेरे भाग्य से पूछ॥ (फिर रो उठी)

दुष्य॰। हे सुन्दरी अब तू अपने मन से मेरे अपगुणों का ध्यान बिसरा दे। जिस समय मैं ने तेरा अनादर किया मेरा चित्त किसी बड़े भ्रम में होगा। जब तमोगुण प्रबल होता है बहुधा यही गति मनुष्य की हो जाती है जैसे अंधे के गले में हार डालो और वह उस को सर्प समझकर फेंक दे॥ (यह कहता हुआ पैरों में गिर पड़ा)