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Act VIII.]
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SAKUNTALA.


शकु॰। उठो प्राणपति उठो। मेरे सुख में बहुत दिन विघ्न रहा परंतु तुम्हारा हित अब तक मुझ में बना है। यह बड़े सुख का मूल है। (राजा उठा) मुझ दुखिया को सुध कैसे आप को आई सो कहो॥

दूष्य॰। जब विरहबिथा का कांटा मेरे कलेजे से निकल जायगा तब सब वृत्तान्त कहंगा। अब तू मुझे अपने सुन्दर पलकों से आंसू पोंछ देने दे जिस से मेरा यह पछतावा दूर हो कि उस दिन में ने भ्रम में आकर तेरे आंस देख अनदेखे किये थे॥ (आंसू पोंछने को हाथ बढ़ाया)

शकु॰। (अपने आंसू पोछकर और राजा की उंगली में अंगूठी देखकर) अहा यह वही बिसासिन अंगूठी है॥

दुष्य॰। इसी के मिलते मुझे तेरी सुध आई॥

शकु॰। तौ यह बड़ेगुणभरी है कि इस से फिर आप को गई प्रतीति मुझ पर आई॥

दुष्य॰। हे प्यारी अब तू इसे पहन जैसे ऋतु के चिह्न के लिये पृथ्वी फूल धारण करती है॥

शकु॰। मुझे इस का विश्वास नहीं रहा है। आप ही पहनो॥

(मातलि माया)

मातलि। महाराज धन्य है यह दिन कि आप ने फिर अपनी धर्मपत्नी पाई और पुत्र का मुख देखा॥

दुष्य॰। मित्रों ही की दया से मेरी अभिलाषा पूरी हुई है। परंतु यह तौ कहो कि इस वृत्तान्त को इन्द्र जानता था या नहीं॥

मात॰। (हंसकर) देवता क्या नहीं जानते हैं। अब आओ। महात्मा कश्यप आप को दर्शन देंगे॥

दुष्य॰। प्यारी चलो और सर्वदमन की भी उंगली थामे चलो। महात्मा का दर्शन कर आवें॥

शकु॰। आप के संग बड़ों के संमुख जाने में मुझे लज्जा आती है॥