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[Act VII
SAKUNTALA.


दुष्य॰। ऐसे शुभ समय में एक संग चलना बहुत उत्तम है। ऐसा सभी करते आए हैं। चलो। विलम्ब मत करो॥ (सब आगे को बढ़े)

स्थान। सिंहासन पर बैठे हुए वश्यप और अदिति बातें करते हुए दिखाई दिये॥

कश्यप। (राजा की ओर देखकर) हे दक्षासुता तेरे पुत्र की सेना का अग्रगामी मर्त्यलोक का राजा दुष्यन्त यही है। इसी के धनुष का प्रताप है कि इन्द्र का बज्र केवल शोभा मात्र रह गया है॥

अदिति। इस के लक्षण बड़े राजाओं के से दिखाई देते हैं॥

मातलि। (दुष्यन्त से) हे राजा द्वादश आदित्यों के माता पिता आप की ओर प्यार की दृष्टि से ऐसे देख रहे हैं जैसे कोई अपने पुत्र को देखता है। आप निकट चलो॥

दुष्य॰। क्या ये ही दक्ष की पुत्री और मरीचि के पुत्र हैं। ये ही ब्रह्मा के पौत्र पौत्री हैं जिन को उस ने सृष्टि के आदि में जन्म दिया था और बारह आदित्यों के पितर कहलाते हैं। क्या ये वे ही हैं जिन से त्रिभुवनधनी इन्द्र और बावन अवतार उत्पन्न हुए॥

मातलि। हां ये ही हैं। (दुष्यन्त समेत साष्टाङ्गदण्डतव की) हे महात्माओं राजा दुष्यन्त जो अभी तुम्हारे पुत्र वासव की आज्ञा पूरी करके आया है प्रणाम करता है॥

कश्यप। अखण्ड राज्य रहें॥

अदिति। तुम रण में अजित हो॥

शकु॰। महाराज में भी आप के चरणों में बालक समेत प्रणाम करती हूं॥

कश्यप। हे पुत्री तेरा स्वामी इन्द्र के समान और पुत्र जयन्त के तल्य हो। इस से उत्तम और क्या आशीवाद दूं कि तू पुलोमन की पुत्री शची के सदृश हो॥

अदिति। हे पुत्री तू सदा सौभाग्यवती रहे। और यह बालक दीर्घायु