बह बहकर आते हैं। तिन से नदी में कैसी लकीर सी बंध रही है। फिर देखो वृष्ठों की जड़ पवित्र बरहों के प्रवाह से धुलकर कैसी चमकती हैं। और होम के धुंएं से नये पत्तों की कान्ति कैसी धुंधली हो रही है। देखो उस उपवन के आगे की भूमि में जहां की * दाभ यज्ञ के लिये कट गई है मृगछोने कैसे धीरे धीरे निधड़क चरते हं ॥
सार० । महाराज अश्व में ने भी तपोवन के चिहू देखे '॥
दुय० । (योट्टी दूर चलकर) सारथी तपोवनवासियेां का अपनाम न होना चाहिये। रथ को यहीं ठहरा दो। हम उतर लें ॥
सार० ॥ में रास खंचता हूं महाराज उतर लें ॥
दुष्य°।(उतरकर और अपने भेय को देखकर) तपस्वियों के आश्रम में नम्रता से जाना कहा है। इस लिये लो तुम मेरे राजचिहों और धनुष बाण की लिये रहो। (सारथी ने ले लिये) और जब तक में तपोवनवासियों के दर्शन करके फिर आऊँ तव तक तुम घोड़ों की पीठ ठंडी कर ली ॥
सार० । जो आज्ञा ॥ (वाहर गया)
दुष्य० । (चारों ओर फिरकर प्रीर देखकर) अब में आश्रम में जाता ह। (आश्रम में धसा) आज दक्षिण भुजा क्यों फड़कती है। (ठहरकर और कुछ सोचकर यह तो तपोवन है। यहां इस अच्छे सगुन का क्या फल होना है। कुछ आश्चर्य भी नहीं है। होनहार कही नहीं रुकती ॥
(नेपथ्य में) प्यारी सखियो यहां आओ यहां आओ ॥
दुष्य०।। (कान लगाकर) इस फुलवारी की दक्षिण ओर क्या कुछ स्त्रियेां का सा बीज सुनाई देता हैं। (चारों ओर फिर कर और देखकर) अहा ये तो तपस्वियों की कन्या हं। अपने अपने वित्त अनुसार कोई छोटी कोई बड़ी गगरी वृक्ष सींचने को लिये जाती हैं। धन्य है। कैसी मनोहर उन की चितवन है। जैसे इन वनयुवतिये की छवि रनवास की स्त्रियों में मिलनी दुर्लभ है वैसे ही उपवन के फूलों को इस वन