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Act I.]
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ŠAKUNTALÅ.

की लता अपने रङ्ग और सुगन्ध से लज्जित कर रही हैं ॥ (खड़ा होकर उन की ओर देखने लगा)

(शकुन्तला अनसूया और प्रिर्पवदा आई)

शकुन्तला। सखियो यहां आओ ॥

अनसूया। हे सखी शकुन्तला पिता कन्व को ये बिरूने तुझ से भी अधिक प्यारे होंगे"। नहीं तो तुझ सुकुमारी को इन के सीचने की आज्ञा न दे जाते । तेरे चमेली से अङ्ग पर दया लाते ॥

शकु० । सखी निरी पिता की आज्ञा ही नहीं है। मेरा भी इन वृक्षेां में सहोदर का सा लेह हो गया है।॥ (पेड को पानी दिया)

प्रियंवदा। सखी शकुन्तला जिन पौधों को तू सीच चुकी है सो तो इसी ग्रीष्म ऋतु में फूलेंगे। अब चल "। उन की भी सींचें जिन के फूलने के दिन निकल गये हैं क्योंकि उन के सींचने से अधिक पुण्य होगा ॥

शकु० । ठीक है ॥ (और वृद्दों को सोचती हुई")

दुष्यन्त । (चकित होकर आप ही आप) कन्व की बेटी शकुन्तला यही है। उस चषि का हृदय बड़ा कठोर होगा जिस ने ऐसी सुकुमारी को ऐसा कठिन काम सैौंपा है। औार वृछों की छाल के वस्त्र पहराये हैं। इस मुन्दरी को जिस के देखते ही मन हाथ से निकला जाता है तपस्विनी बनाना ऐसा है जैसे नील कमल की पखुरो से सूखा छोंकर काटना। बकले की कल्चुकी इस की शोभा नहीं देती है जसे नये फूल को पुराने पते से ढांकना मेल नहीं खाता। नहीं नहीं। बकले का वस्त्र इस मोहिनी की गात की शोभा देता ही है। यह में ने भूलकर कहा कि नहीं देता है क्योंकि कमल के फूल पर काई भी अच्छी लगती है। औार पूर्ण चन्द्र में काली रेखा भी खुलती है ऐसे ही इस पद्मिनी का अङ्ग बकले पहरने से भी मनोहर दिखाई देता हैं। सत्य है रूपवती को सभी सोहता है ॥