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[Act I.
ŚAKUNTALÅ.

शकु० । (आगे देखकर) सखियो देखो पवन के भकेि से आम के पते कैसे हिलते हैं मानो वह हम को उंगलियेां से अपने निकट बुलाता है। चलो। वही चलें ॥ (मय यूथ के निकट गई)

प्रि० । सखी यहां घड़ीक विग्राम ले लें ॥

शकुं० । क्यों ॥

प्रि० । इस लिये कि जब तक तू इस आम के नीचे खड़ी है यह ऐसा शोभायमान हो रहा है मानो इस से" लता लिपट रही है।

शकु० । सखी इसी से तेरा नाम प्रियंवदा हुआ है कि तू बात बहुत प्यारी कहती है।

{{gap}] दुष्य० । (ताप ही आप) प्रियवदा ने बात प्यारी तौ कही। परंतु सत्य भी कही क्योंकि शकुन्तला के अधर हं सी ई लता के नवीन पश्चव हैं” भुजा हं सो ईबेलि हैं और नव यो वन है सो ई विकसित फूल हैं॥

(शकुन्तला ने पानी का पट्टा फुका दिया)

अनसूया । सखी शकुन्तला इस लता को क्यों छोड़े जाती है जिस ने पिता कन्व के आश्रम में तेरी ही भांति रक्षा पाई है ॥

शकु० । किसी दिन में आप अपने को न भूल जाऊं । (लता के निकट गई) सखी प्रियंवदा में तुम्हें कुछ भले समाचार सुनाऊंगी ॥

प्रि० । क्या समाचार हैं सखी ॥

शकु० । देखो यह माध्वी लता यद्यपि इस के फूलने के दिन अभी नहीं आये हैं कैसी " जड़ से चोटी तक कलिये से लद रही है ॥ (दोनेi तुरंत लता के निकट गई)

प्रि० । मस्वी कह ॥ शकु० 1 में सच्ची क्पा कहूं। तू ही देख ले॥

प्रि० । घड़े चाय से हे शकुन्तला इस सगुन के भरोसे पर में कहे" देती हूं कि तुझे अच्छा वर मिलेगा। औार वह थोड़े ही दिनों में तेरा होध्य गहेगा ॥