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ActI.
SAKUNTALÅ.

यहां छाया शीतल है और आप परिश्रम करके आये हो । यहां विघ्राम लो ॥

दुष्य० । तुम भी तो थक गई होगी। आओ छिन भर बैठ लो ॥

अन० । (होले शकुन्तला से) अतिष्यि का संमान करना उचित है। आओ हम भी वैठे (सव वैठ गई)

शकु० । (आप ही आप) इस पाढ़ने को देखकर मेरे मन में ऐसी बात उपजती है जो तपोवन के योग्य नही है ॥

दुष्य० । (एक एक करके सब को देखता हुआ) हे युवतियो जैसी विधाता ने तुम को बैस और निकाई दी है प्रीति भी तुम्हारे" आपस में अच्छी रखी हैं।

प्रि० । (हौले अनसूया से) सखी अनसूया यह नया अतिथि कहां से आया है जिस के अङ्ग में मुकुमारता के संग गुरूता और बोली में मधुरता के साय गम्भीरता है। ये लच्छन तौ बड़े प्रतापियों के हैं।॥

अन० । (हले प्रियंवदा से) सखी में भी इसी सोच विचार में हूं। मेरे मन में आती है कि इस से कुछ पूर्दू। (प्रगट) महात्मा तुम्हारे मधुर वचन सुनकर मुझे भ्यासती है कि तुम कोई राजकुमार हो । सो कहो कौन से राजवंश के भूषण हो" और कहां की प्रजा को विरह में व्याकुल छोड़ यहां पधारे हो । क्या कारण है जिस से" तुम ने अपने कोमल गात को इस कठिन तपोवन में पीड़ित किया है ॥

शकु० । (आप ही आप) अरे मन तू आतुर मत हो । धीरज धर। तेरे हित की बात अनसूया ही कह रही है ॥

दुष्य० । (आप ही आप) अब में क्येांकर प्रगट हूं और कैसे छिपा रहूं। हो सो हो इन से बात तौ करूंहीगा"। (प्रगट अनसूपा से) हे ऋषिकुमारी में पुरुवंशी राजा के नगर में निवास करता हूं। और पुरुवंशियेां मुझे राज्य के धमैकार्य सैपि रखे हं। इस लिये आश्रम के दर्शन की आया हूं ॥