अन० । महात्मा तुम्हारे पधारने से इस वन के धर्मचारी भी सनाथ हुए॥ (शकुन्तला कुछ लज्जित और मोहित सी¹³³ हो गई और दोनों मखो कभी उस की ओर कभी
राजा को झोर देखने लगी)
अन० । (होले शकुन्तला से) कदाचित आज कन्व घर होते¹³⁴ ॥
शकु० । तो क्या होता¹³5
अन० । इस पाहुने का आदर अनेक भांति¹³6 करते¹³7 ॥
शकु० । (रिस सी होकर) चल । परे हो । तेरे मन में कुछ और ही है। जा। मैं तेरी न सुनूंगी¹³8 ॥ (अलग जा बैठी)
दुष्य० । (अनमूया और प्रियंघदा से) हे युवतियो अब मैं भी तुम्हारी सखी का वृत्तान्त पूछता हूं¹³9
दोनों। यह आप का अनुयह है ॥
दुष्य० । कन्व ऋषि तौ ब्रह्मचारी हैं। फिर यह तुम्हारी सखी उन की बेटी क्योंकर हुई।
अन० । महाराज सुनो । कुशिक के वंश में एक बड़ा प्रतापी रा-
जर्षि है ॥
दुष्य० । हां मैं ने जान लिया। तुम विश्वामित्र का नाम¹⁴0 लोगी¹⁴¹। लोगी¹⁴¹भी सुने हैं।
अन० । उसी से हमारी इस सखी की उत्पत्ति है । और कन्व इस
के पिता ऐसे कहाते हैं कि¹⁴² जब इस का नाल भी नहीं कटा था
तब उन को वन में पड़ी मिली थी।¹⁴³ और उन्हीं ने पाली पोसी है ॥
दुष्य० । पड़ी मिली थी।¹⁴⁴ यह बात सुनकर तो¹⁴5 मुझे आश्चर्य होता है। अब इस की जड़ से उत्पत्ति कहीं¹⁴6 ॥
अन० । अच्छा सुनो। मैं कहती हूं । जब उस राजर्षि ने उय तप
किया तब देवताओं ने शङ्का मान¹⁴7 उस का तप डिगाने के निमित्त
मेनका नाम अप्सरा भेजी ॥