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ACT I.]
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SAKUNTALA.

दुष्य० । सच है। देवता ऐसे ही हैं औरों की तपस्या से डर जाते हैं।¹¹8 भला फिर क्या हुआ ॥

अन० । वसन्त ऋतु में मेनका की मोहिनी छवि निरखते ही ....(इतना कह लजित हो गई)

दुष्प० । आगे¹49 हम ने जान लिया कि शकुन्तला क्षत्री की बेटी अप्सरा से है ॥

अन० । हां ॥

दुष्य० । (आप ही आप) अब¹50 दैव ने किया तो मनोरथ पूरा हुआ। (प्रगट) क्यों न हो¹5¹। इसी से इस का ऐसा रूप है। नहीं तौ¹52 मनुष्य-जाति की स्त्रियों में इतनी दमक कहां पाइये ¹5³ ॥

(शकुन्तला लाज से सिर झुकाकर बैठ गई)

दुष्य० । (आप ही आप) मेरी मनोकामना सिद्ध होने के लछन तौ दिखाई देते हैं। परंतु द्विविधा यही है कि सखी ने व्याह की बात कहीं हंसी से न कही हो¹54 ॥

प्रि० । (हंसकर पहले शकुन्तला की पोर फिर राजा को सोर देखती हुई) क्या आप के मन में कुछ कहने को है ॥ (शकुन्तला उंगली से बरजती हुई)

दुष्य० । हां मेरे मन में इस अनूठे चरित के सुनने की अभी 155 और अभिलाषा है ॥

प्रि० । महाराज जो कुछ कहो सो बहुत समझ बूझकर कहियो क्योंकि तपस्वी लोगों पर किसी का बस नहीं होता है¹57 ।।

दुष्य० । मैं यह पूछता हूं कि शङ्गाररस के बैरी ¹58 इस वानप्रस्थ-नियम में तुम्हारी सखी व्याह ही तक रहेगी । या¹59 सदा अपनी सी¹60 आंखोंवाली हरिणियों ही के संग खेलेगी॥

प्रि० । हे महात्मा हमारी सखी परवस है। और इस के बड़ों का यह संकल्प है कि इसी के समान¹6¹ वर मिले तो दें॥

दुष्य० । समान वर मिलना तो बहुत कठिन है। (आप ही आप) अरे