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[ACT I.
SAKUSTALA.


मन अब तू इस के मिलने की चाह कर । तेरे संदेह का निवारण हो गया। जिस को तू जलती आग समझा था सो तो गले का हार बनाने योग्य¹6² रत्न निकला ॥


शकु० । (रिस सी होकर)अनसूया तू मुझे यहां ठहरने न देगी। ले। मैं जाती हूं।


अन० । क्यों काहे को जाती है ।।


शकु० । मैं गौतमी से जाकर कहंगी कि अनसूया मुझ¹6³ से बकती है। (यह कह कर उठी)


अन० । हे सखी यह उचित नहीं है कि तू ऐसे पाहुने को विना सत्कार किये छोड़कर चली जाय ॥


(शकुन्तला ने कुछ उन्नर न दिपा । चल खड़ी हुई)


दुष्य० । (ऐसे उठा मानो रोकेगा¹64 परंतु भाप ही रुक गया फिर पाप ही आप कहने लगा) अहा कामी मनुषों की कैसी मति भङ्ग हो जाती है । देखो मैं ने तपस्वी की कन्या को चलने से रोकना चाहा¹65 और आसन से खड़ा भी हो गया। कदाचित धर्म न संहालता तौ कैसा होता¹66 ॥


प्रि० । (शकुन्तला के निकट जाकर)सखी यहां से जाने न पावेगी॥


शकु० । (पीछे हटकर और भौंह चढ़ाकर) क्यों न जाने पाऊंगी। मझे कौन रोकनेवाला है¹67 ॥


प्रि० । सखी अपना वचन निबाहे तौ । अभी तुझे दो रूख सीचने को और रहे हैं।¹08 इस ऋण को चुका दे। तब चली जाना¹69 ॥ (बल कर 170 रोकती हुई)


दुष्य० । वृक्ष सीचने को घड़े उठाते उठाते¹70तुम्हारी सखी थक गई है । देखो इस की बाहें शिथिल हो गई हैं लाल हथेली अधिक लाल पड़ गई है छाती धुकधुकाती है मुख पर पसीने के विन्दु मोती से ढरक रहे हैं चुटीला ढीला होकर कपोलों पर अलकें विथुरती हैं तिन को एक हाथ से थाम रही है। यह ऋण मुझे यों चुकाने दो । (अंगूठी