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ACT ॥.]
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SAKUNTALÀ.

अङ्क २

स्थान वन के निकट योगान में राजा के रे ॥

(स्वास लेता हुआ और बिपाद करता हुमा माटव्य' माया)

माढव्य। इस मुगयाशील राजा की मित्रता से हम तौ बड़े दुखी हैं। मन में ऐसी आती है कि सब छोड़ छाड़ बैठ रहिये । यहां तो ग्रीष्म की दुपहरी में भी यह मृग आया वह वराह गया उधर शार्दूल जाता है यही कहते इस वन से उस में उस से इस में पशुओं की भति भागना रहता है। कहीं छाया भी इतनी नहीं मिलती जहां कुछ विश्राम लिया जाय । पहाड़ को नदी में वृक्षों के पत्ते गिर गिरकर सड़ गये हैं । प्यास लगे तो उन्हीं का पानी पीना पड़ता है। और खाने को शूल पर भुना मांस मिलता है । सो भी कुसमय। घोड़े के पीछे दौड़ते दौड़ते देह ढीली हो जाती है और रात को नींदभर' सोना नहीं मिलता । फिर बड़ी भोर ही दासीजाये मांस ही मांस पुकारते हैं' और चलो वन को चलो वन को यह चिल्ला चिल्लाकर कान फोड़ते हैं । ये दुख तो थे ही तब तक । एक नया घाव और हुआ कि हम से बिछुड़कर राजा मृग के पीछे चलते चलते तपस्वियों के आश्रम में पहुंचा। वहां मेरे अभाग्य से उस की दृष्टि एक तपस्वी की कन्या पर जिस का नाम शकुन्तला है पड़ गई । अब नगर का लौटना कैसा । इन्हीं क्लेशों के सोच विचार में सब रात मेरी आंख नहीं लगी। जब तक राजा को देख न लंगा तब तक न जाने क्या गति मेरी होगी"। अब कब ऐसा होगा कि यहां से लौटकर फिर राजा को सिंहासन पर बैठा देखें । (आगे को चला लौर देखा) अहह वह भेष बदले आता है। हाथ में धनुष बाण तो है परंतु सिर पर मुकट की टौर वन के फूलों की माला धरी है। आता तो इधर ही को ह" । अब मैं भी अङ्गभङ्ग