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[ACT॥.
SAKUNTALA


करके खड़ा हो जाऊं। (लाठी टेककर खड़ा हुआ) चलो यों ही विश्राम सही" ॥


(ऊपर कहे हुए भेप से दुप्पमा आया)

दुष्यन्त । (ऊंची स्वास लेकर साप ही साप) क्या कीजिये। प्यारी का मिलना तो सहज नहीं है और मन मिलने को ऐसा" तड़फता है । यद्यपि अभी हमारी परस्पर प्रीति का फल नहीं मिला है परंतु दोनों के जी" में मिलने की चाह लगी है। (मुसक्याकर) जब किसी की किसी से लगती है तो यही सूझती है कि उस की भी मुझ से लगी होगी"। उस ने चाहे अपनी सखियों की ओर ही देखा हो परंतु मैं ने यही जाना कि मुझ ही पर स्नेह की दृष्टि की है। फिर जब उस को सखियों ने अनखा तब वह चाहे रिस हों हुई हो परंतु मेरे मन में यही भ्यासी कि यह भी कुछ कटाक्ष मुझ ही पर है। सत्य है अपने प्रयोजन की बात" देखने में प्रेमी जनों की दृष्टि बड़ी पैनी होती है ।


माढ० । (जैसे खड़ा था वैसे ही खड़ा रहा) हे मित्र मेरे हाथ पांव नहीं चलते हैं। इस लिये केवल वचनों ही से तुम को आशीर्वाद देता हूं। आप की जय रहे॥


दुष्य० । (उस की ओर देखकर और मुसक्याकर) कहो सखा तुम्हारा अङ्गभङ्ग क्यों हुआ ॥


माढ० । अपनी उंगली से आंख कुचोकर आप ही पूछते हो कि आंसू क्यों आये ॥


दुष्य० । हम समझे नहीं । तुम ने क्या कहा ॥


माढ० । देखो वह बेत का वृक्ष नीचे को झुक गया है । सो कहो अपने आप का है या नदी के प्रवाह से ।।


दुष्य० । नदी के प्रवाह से झुका होगा" ॥


माढ० । ऐसे ही मेरे अङ्गभङ्ग होने के तुम ही कारण होगे॥


दुष्य । क्योंकर ॥