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[ Act II.
SAKUNTALÀ

सेनापति । (दुष्यन्त को ओर देखकर आप ही आप) मृगया को बड़ों ने दोष दिया है और अनर्थ कहा है। परंतु हमारे स्वामी को गुणदायक हुई है। वार वार धनुष बैंचने से महाराज का शरीर कैसा कड़ा हो गया है कि³⁴ धूप नहीं व्यापती न पसीना आता है। स्वामी का शरीर यद्यपि दुबला है. तो भी डील पहाड़ सा और बल हाथी का सा है³5 । (राजा के निकट जाकर प्रगट) स्वामी की जय हो । महाराज इस वन में हमने आखेटो पशुओं के खोज³6 देखे हैं । यहां मृगया बहुत है । आप कैसे बैठे हो³7।।


दुष्य० । हे भद्रसेन इस माढव्य ने मृगया की निन्दा करके मेरा उत्साह मन्द कर दिया है ॥


सेन० । (हौले माटव्य से) तुम अपनी बात पर बने रहो³8। मैं स्वामी के मन सुहाती³9 कहूंगा । (प्रगट) महाराज इस रांड़के को बकने दीजिये ।भला आप ही सोचो कि मृगया में गुण है या अवगुण । एक तो यही चलनेहै कि इस से आहार पचकर उदर हलका हो जाता है और शरीर चलने फिरने के योग्य होता है । देखिये क्रोध और भय से पशुओं को कैसी कैसी⁴0 " दशा होती है । धनुषधारियों की यही बड़ाई है कि चलते वेझे को बेध लें । मृगया को दोष लगाना मिथ्या है । इस से उत्तम तौ मन बहलाने की⁴¹" कोई बात ही नहीं है ॥


माढ० । (रिस से) अरे राजा को तो मृगया की टेव लग गई है। तुझे क्या हुआ है जो⁴² " तू ऐसी बातें कहता है । वन में बहुत⁴²a दौड़ता फिरता है। किप्ती दिन कोई बृढ़ा रीछ तुझे स्यार के धोखे न पकड़ ले ⁴³॥


दुष्य० । हे सेनापति यह आश्रम का समीप है । अब हम आखेट की बड़ाई करने में तुम्हारा पक्ष नहीं ले सकते हैं । आज भैंसों को आनन्द से तलावों में लोटने दो। हरिणों को घनी छाया में बैठकर रोंथ करने दो ।सूअरों को अधसूखे पोखरों में मोथे की जड़ खोद खाने दो। मेरे धनुष की प्रत्यञ्चा भी ढीली हो गई है। आज इसे भी विश्राम मिलेगा।