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[ACT‌‌‍॥
‌SAKUNTALA.


दुष्य० । (कान लगाकर) अहा यह तो तपस्वियों का सा7² बोल है।

( द्वारपाल आया )

द्वारपाल । स्वामी की जय हो।दो ऋषिकुमार द्वार पर आये हैं


दुष्य० । तुरंत लाओ ॥


द्वार० । अभी लाता हूं । (बाहर गया और दो ब्राह्मणों को साथ लेकर साया) इधर आओ । इधर आओ॥


पहला ब्राह्मण । (राजा की घोर देखकर) अहा इस तेजस्वी राजा के दर्शन से मन में कैसा विश्वास उपजता है। क्या कारण है जिस से इस के संमुख आते ही मेरा सब भय मिट गया। मेरे जान7³ यह हेतु होगा कि इस की प्रकृति भी तपस्वियों की सी है7⁴ । हमारी भांति इस ने भी वन का निवास लिया है और हमारी रक्षा करना यही अपने लिये दिन प्रतिदिन तप संचय करना ठहराया है75 । जितेन्द्री राजा का यश स्वर्ग तक पहुंचता है और वहां उस को गन्धर्व76 अप्सरा राजर्षि कहकर गाते है77 ॥


दूसरा ब्राह्मण । हे गौतम क्या यही इन्द्र का सखा दुष्यन्त है ॥


प० ब्रा० । हां यही है ॥


दु० ब्रा० । तौ फिर क्या आश्चर्य है कि यह अकेला अपनी बांहों से जो नगर के राजद्वार की अर्गला के तुल्य है समुद्र पर्यन्त78 सब पृथी पर राज करता है और स्वर्ग में देवता इन्द्र के वज को भूल इसी के धनुष के प्रताप से दैत्यों79 पर अपना विजय पाना बखानते हैं ॥


दो ब्रा० । (राजा के निकट जाकर) महाराज की जय हो ॥


दुष्य० । (प्रणाम करके) तुम्हारे आगमन का कारण जानने की हमारी इच्छा है ॥


दो ब्रा० । महाराज आश्रमवासियों ने यह जानकर कि आप यहीं हो कुछ प्रार्थना की है ॥


दुष्य० । क्या आज्ञा की है ॥