दो ब्रा० । हमारे गुरु कब ऋषि यहां नहीं हैं80 और राक्षस8¹
आकर यज्ञ में विघ्न डालते हैं । इस लिये आप सारथी समेत कुछ दिन8²
इस आश्रम की रक्षा करो॥
दुष्य° । (मुसकाकर) यह तो मेरे ऊपर8³ बड़ा अनुग्रह किया ॥
माढ० । (सैन देकर) अब तो तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई ॥
दुष्य० । (मुसकाकर)रैवतकक तू जाकर सारथी को आज्ञा दे कि रथ लावे और मेरा धनुष बाण भी लेता8⁴ आवे ॥
द्वार। जो आज्ञा ॥ (बाहर गया)
दो० ब्रा० । (हर्म से) आप अगलों की रीति पर चलते हो85। इस से यही उचित है। और यह तो प्रसिद्ध ही है कि शरणागत को अभय देने के निमित्त पुरुवंशी सदा रणकङ्कण बांधे रहते हैं ।
दुष्य० । (प्रणाम करके) ब्राह्मणो तुम आगे चलो। मैं भी आया86।
दो० ब्रा० । सदा जय रहे ॥ (दोनों गये)
दुष्य० । माढव्य क्या तेरी भी इच्छा शकुन्तला के देखने की है।
माढ । पहले तो कुछ चिन्ता भी न थी। परंतु जब से राक्षसों का
नाम सुना है तब से उधर जाने को87 जी डरता है ।
दुष्यः । डरता क्यों है। हमारे पास रहना ॥
माढ० । मुझे राक्षस से बचाने का आप को अवकाश भी मिलेगा।
( द्वारपाल आया )
। महाराज रथ आ गया है और आप की माता की आज्ञापाकर करभक दूत भी नगर से आया है॥
दुष्यः । (सत्कार करके) क्या माता का88 भेजा करभक आया है। अच्छा। उस को आने दो॥
बार । जो आज्ञा । (बाहर गया और करभक दूत को लिया लाया) महाराज इधर हैं। संमुख जा॥
करभक। (साष्टाङ्ग होकर) स्वामी की जय हो। माता ने यह आज्ञा की