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ACT III.]
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SAKUNTALA.

माढ० । सत्य है । आप की जय रहे ॥

दुष्य० । अच्छा हमारा संदेसा यथार्थ भुगता दीजियो । मैं तपस्वियों की रक्षा को जाता हूं।

( सब बाहर गये )

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अङ्क ३

स्थान बन में तपस्वियों का आश्रम ॥

( कन्व का एक चेला आया )

चेला । (कुश हाथ में लिये अचम्भा सा करता हुआ¹) अहा दुष्यन्त का कैसा² आतङ्क है कि जिस के चरण वन में आते ही हमारे सब यज्ञकर्म निर्विघ्न होने लगे । बाण चढ़ाने की तौ क्या चली³ । प्रत्यच्चा की फटकार और धनुष की टंकार ही से हमारे सब क्लेश मिटा दिये । अब चलूं । मुझे ये दाभ वेदी पर बिछाने के लिये यज्ञकरनेवाले ब्राह्मणों को देने हैं⁴ । (फिरकर और नेपथ्य के पीछे देखकर हे प्रियंवदा किस के लिये उसीर5 का लेप और कमल के पत्ते लिये जाती है । (कान लगाकर सुनना हुआ) क्या कहा6 कि धूप लगने से शकुन्तला बहुत व्याकुल हो गई है। उस के लिये ठंढाई लिये7 जाती8 हूं। अच्छा तो दौड़ी जा। वह कन्या कन्व की9 प्राण है । मैं भी गौतमी के हाथ यज्ञमन्त्र का पढ़ा जल¹0 भेजूंगा ॥ (बाहर गया)


(सासक्त मनुष्यों को सी दशा बनाये दुष्यन्त आया)

दुष्यन्त । तपस्या का प्रभाव में भली भांति जानता हूं। और यह भी समझता हूं कि वह पराए बस¹¹ है। परंतु अपने चित्त को उस से हटाने की सामर्थ्य नहीं रखता हूं। हे मन्मथ मेरे ऊपर तझे क्यों दया नहीं आती है। देख तेरा नाम तो पुष्पशर¹² है। तू ऐसा कठोर क्योंकर हुआ । (कुछ सोचकर) हां इस का हेतु मैं ने जाना। महादेव के कोप की