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[ Act III.
SAKUNTALÀ

शकु० । (होले आप ही साप) मेरी विथा तो भारी है परंतु इस का कारण तरंत ही न कह दूंगी॥


प्रि० । हे शकुन्तला यह अनसूया भली कहती है । तू अपने रोग को बढ़ने मत दे । क्योंकि दिन पर दिन तू दुबली होती जाती है । अब केवल स्वरूप ही रह गया है।


दुष्य० । (होले पाप हो प्राप) प्रियंवदा ने सत्य कहा । इस के कपील सूख गये हैं अङ्ग शिथिल हो गये हैं कटि अति छीन पड़ गई है " कंधे झुक आये हैं रङ्ग पीला पड़ गया है । इस से निश्चय है कि यह मदनाग्नि में झुलसकर ऐसी हो गई है जैसी लपपटकी मारी शकुली की लता। परंतु मेरे मन को अब भी सजी बनी है"


शकु० । (साह करके) सखी तुम से न कहंगी। किस से कहंगी। तुम ही को दुख दूंगी ॥


प्रि० । प्यारी इसी से तो हम हठ करके पूछती हैं कि हितू जनों बटाने से दुख घटता है॥


दुष्य० । (हौले पाप ही शाप) अब सुख दुख की साझिन सखियों के पूछने से यह अपने मन की सब बात कह देगी। इस की आंखों का टगा मैं हूं"। सो मेरी भी यही चाह है कि कब इस के मुख से उत्तर सुनूं ॥


शकु०. । हे सखी जब से मेरे नेत्रों के सामने उस तपोवन का रखवाला वह चतुर राजर्षि आया तभी से (इतना कह लजित होकर चुप रह गई)


दोनों सखी । कहे जा॥


शकु० । तब से मेरा मन उस के बस होकर इस दशा को पहुंचा है।


अन० । चलो। यह भी अच्छा हुआ कि जो तेरे योग्य था उसी से आंख लगी॥


प्रि० । यह कब हो सकता है कि निर्मल नदी समुद्र को छोड़ ताल में गिरे अथवा सुन्दर लता आम को छोड़ दूसरे वृक्ष से लिपटे ॥