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[ Act III.
SAKUNTALÀ

अन । महाराज आप भी उसी चटान पै बिराजिये जहां शकुन्तला है ॥ (शकुन्तला ने जगह दी)


दुष्य० । (बैठकर) कहो तुम्हारी सखी के शरीर का कुछ ताप घटा॥


दो सखी । (हंसकर) अभी औषधि मिली है । अब घटेगा ॥ (शकुन्तला लजित हो गई)


दुष्य० । (आप ही आप) यह केवल अपने रूप ही के बल से मन को बस को करती है। इस का लज्जित होना भी चित को ठगे" लेता है। हैखो अपनी आंखों के ताड़ित किये" कमल की पखुरियों को कैसे अनोखेपन से गिन रही है ॥


शकु० । प्रियंवदा मेरे निकट आ॥


प्रि० । (पास जाकर) आई ॥


शकु० । राजा से यों कहो . . . . ॥(कान में कुछ कहतीहुई)


प्रि० । हे वड़भागी तुम से" शकुन्तला विनती करती है कि प्रथम मिलाप को भूल मत जाना ॥ (शकुन्तला से) महाराज भी यही कहते हैं ।


शकु० । महाराज जैसे रूपवान हैं वैसे ही चतुर भी हैं ।


प्रि० । हे सज्जन यद्यपि तुम्हारी दोनों की परस्पर प्रीति प्रगट है परंतु इस सखी का स्नेह मुझ से फिर कुछ कहलाया चाहता है" ॥


दुष्य० । सुन्दरी जो कुछ कहा चाहती हो निधड़क कहो । छुपाओ मत क्योंकि कहने को मन में आवे और कहा न जाय तो चित को मतद करता है।


प्रि० । प्रजा को दुख हो तो राजा का धर्म है कि उस दुख को मिटावें ॥


दुष्य० । सत्य है। इस से बड़ा कोई धर्म राजा के लिये नहीं है ॥


प्रि० । हमारी सखी को तुम्हारी लगन ने इस दशा को पहुंचा दिया है। अव तुम ही इस योग्य हो कि इस को जीवदान दो" ॥


दुष्य० । हे सुन्दरी प्रीति तो हमारी परस्पर है। परंतु इस में सब विधि कृतार्थ मैं ही हं॥