दुष्य० । (आप ही आप) अब मुझे विश्वास हुआ¹²0 । क्योंकि आर्य पुत्र शब्द केवल पति के लिये बोला जाता है । (प्रगट) प्यारी यह कङ्कण तुम्हारी बांह में ठीक न आया । लाओ इसे फिरकर बनावें॥
शकु० । (हंसकर) जैसे तुम्हारी इच्छा हो ॥
दुष्य० । (कुछ विलस करके) यह अर्द्धचन्द्र है कि शोभा पाने के लिये आकाश को छोड़ तेरी बांह पर कङ्कण बनने आया है ।
शकु० । कुछ मुझे तो चन्द्रमा सूझता नहीं है । मेरे कानों पर कमल के फूल हैं इन से पराग उड़कर आंखों में पड़ा है। इस से दृष्टि इस
समय मंदी हो रही है।
दुष्यः० । (हंसकर) कहे तो मुख से फूंककर आंखों को निर्मल कर दूं ॥
शकु० । यह तो बड़ी कृपा हो । परंतु मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है।
दुष्य० । कभी नया सेवक स्वामी की आज्ञा से कुछ अधिक करते भी सुना है ॥
शकु० । तुम्हारी यही लुरखुरी की बातें तो विश्वास नहीं होने देती।
(धीरे से फूंक मारी) बस करो। अब मेरी दृष्टि ज्यों की त्यों हो गई । अब में लजाती हूं कि मुझ में कोई गुण ऐसा नहीं है जिस से आप के इस
अनुग्रह का पलटा दे सकू
दुष्य० । इस से बड़ा और क्या पलटा होगा कि तू ने अपने होंठों
का सौरभ मुझे लेने दिया । क्योंकि भौंरा कमल की वासना ही से
संतुष्ट हो जाता है।
(नेपथ्य में) हे चकवी अब चकवे से न्यारी हो । रात आई ॥
शकु० । (कान लगाकर और सटपटाकर) हे महाराजकुमार निश्चय मेरे शरीर का वृत्तान्त पूछने को कन्व की छोटी बहन गौतमी आती है । तुम
वृक्ष की आड़ में हो जाओ
दुष्य० अच्छा । यही करूंगा ॥ (चला गया)
(हाथ में कमण्डल लिये गौतमी आई)