गौतमी । (शकुन्तला की ओर प्रति चिन्ता से ¹²6 देखकर) पुत्री तेरे लिये मन्त्र पढ़ा जल लाई हूं। क्या तू यहां अकेली ही है । सहेली कहां गई।
शकु प्रियंवदा और अनसूया दोनों अभी नदी को गई हैं ॥
गौ० । (जल के छोटे देकर¹²7) शकुन्तला तेरे शरीर का ताप कुछ घटा कि नहीं ॥ (नाड़ी देखी¹²8)
शकु० । हां कछ घटा है ॥
गौ० । इस कुश के जल से तेरा शरीर निरोग हो जायगा । कुछ भय मत कर । परंतु अव संध्या हुई । घर को चल ॥
शकु । (हौले से उठकर आप ही साप हे मन तेरी आकांक्षा पूरी हो गई तो भी चिन्ता न मिटी । इस का क्या उपाय होगा । (घोड़ी दूर चलकर खड़ी हुई) हे संतापहरनेवाली लताओ मैं तुम से विनती करती हूं कि
कभी फिर भी सुख दिखाना¹²9 ॥ (गौतमो के साथ चलती हुई)
दुष्य । (उसी स्थान पर आकर और गहरी सांस भरकर) सत्य है। जिस बात का मनोरथ किया जाय उस में विघ्न अवश्य होता है। (चारो सोर देखकर) हाय चटान पर यही फूलों की सेज है जिस पर वह पौढ़ी थी । यही कमल का पता है जिस पर प्यारी ने स्नेह पत्र लिखा था। यह उस की बांह से गिरा कमलों का कङ्कण है। यद्यपि यह वेतलता सूनी है तो भी
इन चिह्नों को देख देख मुझ से छोड़ी नहीं जाती¹³0। मुझे धिक्कार है कि
प्यारी से मिलकर फिर उस के वियोग में समय व्यतीत करता हूं। जो
एक बेर फिर उस लताभवन में वह मनभावती आवे तो कभी बिछुरने
न दूं । सुख की घड़ी बड़े श्रम से मिलती है। मेरा यह मूर्ख मन अब
तो ऐसा प्रण करता है परंतु प्यारी के संमुख कायर हो जाता है ॥
नेपथ्यहे राजा अब हमारा संध्या के यज्ञकर्म का समय हुआ और
मांसाहारी राक्षसों की छाया हुताशन की वेदी पर सांझ के मेघ के
वर्ण 13 फिरती दिखाई देती है । इस से भय उपजा है ॥
टुप्प । हे तपस्वियो भयभीत मत हो । मैं आया ॥ (बाहर गया)