अङ्क ४
स्थान तपोवन ॥
(दोनो सखी फूल योनती आई)
अनसूया । हे सखी प्रियंवदा हमारी सहेली शकुन्तला का गान्धर्व
विवाह हुआ। और पति भी उसी के समान मिला। इस से हमारे मन को मुख हुआ। परंतु फिर भी चिन्ता न मिटी ॥
प्रियंवदा । सखी और क्या चिन्ता रह गई ॥
अन । आज वह राजर्षि तपस्वियों का यज्ञ पूरा कराकर अपनी
राजधानी हस्तिनापुर को बिदा हुआ है । वहां रनवास में पहुंचकर जाने यहां की सुध रहेगी या न रहेगी।
प्रि० । इस की कुछ चिन्ता मत करो। ऐसे गुणवान मनुथ कभी
निर्लज्ज नहीं होते हैं । अब चिन्ता की बात यह है कि न जाने पिता कन्व इस वृत्तान्त को सुनकर क्या कहेंगे
अन० । मेरे मन में तो यह भ्यासती है कि वे इस वृत्तान्त से प्रसन्न होंगे ॥
प्रि० । क्यों ॥
अन० । इस लिये कि उन का संकल्प था कि यह कन्या किसी गुणवान को दें। सो देव ने वैसा ही योग मिला दिया। फिर वे क्यों
अप्रसन्न होंगे॥
प्रि० । सत्य है । (फूलों की टोकरी को देखकर) हे सखी जितने फूल पूजा के लिये चाहिये 'उतने तो बीन चुकीं ॥
अन । अब थोड़े से शकुन्तला से गौरिपूजा करने के लिये और
बीन लें ॥
प्रि० । अच्छा ॥ (दोनों फूल बोनने लगी)
(नेपथ्य में) मैं आता हूं ॥