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[ACT IV.
SAKUNTALÀ.


तौ प्रभात हो गया। चन्द्रमा और सूर्य इस संसार की संपत्ति विपत्ति की अनित्यता का कैसा 22अनुमान कराते हैं। औषधिपति तो इस समय अस्त होने पर है 23और ग्रहपति अरुण24 को सारथी25 किये उदय हुआ चाहता है।26 उन की शोभा उदय अस्त पर बढ़ घट होती है27 । ऐसे ही सज्जन मनुष्य सुख दुख में धीरज रखते हैं। इन की घटती बढ़ती इस संसार के उतार चढ़ाव का दृष्टान्त है । वहीं कमोदिनी जिस की शोभा की बड़ाई होती थी अब चन्द्रास्त में दृष्टि को आनन्द नहीं देती । केवल सुगन्ध रह गई है । और ऐसी कुम्हला गई है जैसे अपने प्यारे के वियोग में अबलाजन28 व्यथित होती हैं । देखो बेर के पत्तों पर ओस की बूंदों को अरुण कैसी29 शोभा देता है । दाभ की कुटी से मोर निद्रा छोड़ छोड़ बाहर निकलते हैं। यज्ञस्थानों से भाग भागकर मृग टीले पर खड़े कैसे29 ऐंड़ाते हैं । वही चन्द्रमा जो गिरिराज सुमेरू के सिर पर पांव धरता30 और अन्धकार को मिटाता30 हुआ मध्या-काश में विष्णधाम तक चढ़ गया था अब अपना तेज गंवाकर नीचे को जाता है। ऐसे ही इस संसार में बड़े मनुथ अति श्रम से अपनी कामना को प्राप्त होते हैं फिर तुरंत उतरना पड़ता है31 ।।

(अनमूया कुछ विचारतो हुई आई)

अन० । (शाप ही आप) ययपि शकुन्तला तपोवन में इतनी बड़ी हुई है और इन्द्रियों का सुख नहीं जाना है तो भी लगन ने यह दशा उस की कर दी है। हाय राजा ने कैसी अनीति इस के साथ की है ॥

चेला। (आप ही प्राप) अब होम का समय हुआ। गुरु से चलकर कहना चाहिये ॥ (पाहर गया)

अन० । रैन बीत गई । मैं अभी सोते से भी नहीं उठी हूं। और जो उठी भी होती तो क्या करती। हाथ पैर तो कहने ही में नहीं है । अव निर्दई कामदेव का मनोरथ पूरा हुआ कि उस ने एक