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ACT IV.] SAKUNTALA 43


मिथ्यावादी राजा के बस में हमारी सीधी सच्ची सखी को डालकर इस दशा को पहुंचाया है। और जो यह फल दुर्वासा के श्राप का नहीं है तो क्या हेतु है कि धर्मात्मा राजा ने ऐसे वचन देकर अब तक संदेसा भी न भेजा। अब यह उचित है या नहीं कि उस मुदरी" को हम राजा के पास भेजें । अथवा और भी कोई उपाय है जिस से हमारो प्यारी सखी का विरह मिटे । उस का तो कुछ अपराध नहीं है। पिता कन्व तीर्थ करके आ गये। परंतु उन से यह बात कहने को कि शकुन्तला का विवाह राजा दुष्यन्त से हो गया है और गर्भवती भी है मेरा हियाव नहीं पड़ता है । हे दैव अब क्या उपाय करें जिस से शकुन्तला की बिथा दूर हो ॥

(प्रियंवदा आई)


प्रि० । अनसूया चलो । शकुन्तला की विदा का उपचार करें।


अन । (आश्चर्य से) सखी तू क्या कहती है ।


प्रि० । अभी मैं शकुन्तला से यह बात पूछने गई थी कि रात को चैन से सोई या नहीं ....॥


अन । सो तब ॥


प्रि० । सो वह तो सिर झुकाये बैठी थी। इतने में पिता कन्व निकट आकर उस से मिले “ और यह शुभ वचन बोले कि हे पुत्री बड़े मङ्गल की बात है कि आज प्रातकाल जब ब्राह्मण ने अग्निकुण्ड में आहुति दी तब यद्यपि यज्ञ के धूएं से उस की दृष्टि धुंधुली हो रही थी तो भी आहुति अग्नि के बीच में पड़ी । इस लिये अब तुम को मैं अधिक दुख में न रक्खूगा । आज तुम्हारी बिदा इस कुटी से उस राजा के रनवास को कर दूंगा जिस ने तुम्हारा पाणिग्रहण किया है।

अन । हे सखी जो बातें मुनि के पीछे हुई थीं सो उन से किस नेकह दी ॥
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