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[ACT IV.
SAKUNTALÀ.

प्रि० । जब मुनि यज्ञस्थान के निकट पहुंचे तब आकाशवाणी कह गई" ॥


अन०।(चकित होकर) तू कैसी अचम्भे की बात कहती है॥

प्रि० । सखी सुन । आकाशवाणी ने यह कहा कि हे ब्राह्मण जैसे होम की अग्नि से शमी गर्भवती होती है तैसे ही तेरी बेटी ने पृथी की रक्षा के निमित राजा दुष्यन्त से एक अंश तेज का लिया है।।

अन० । (धानन्द से प्रियंवदा को भेटकर) हे सखी यह सुनकर मुझे बड़ा सुख हुआ। परंतु सखी के बिछोह का दुख भी है। इस लिये आज हमारा हर्ष शोक समान है॥

प्रि० । सखी को सुख होगा। इस से हम को भी कुछ शोक न करना चाहिये।‌।

अन० । मैं ने इसी दिन के लिये उस नारियल में जो वह देखो आम के वक्ष पर लटकता है नागकेशरी भर रक्खी थी। तम उसे उतारकर कमल के पत्ते में रक्खो। तब तक मैं थोड़ा सा गोरोचन और मिट्टी और दूब मङ्गलकार्य के लिये ले आऊं ॥


प्रि० । बहुत अच्छा ॥ (प्रियंवदा ने नागकेशरी ली और अनसूया गई)

(नेपथ्य में) हे गौतमी शारिव और शारदत मित्रों से कह दो कि शकुन्तला के संग जाना होगा53 ॥


प्रि० । (काम लगाकर) अनसूया विलम्ब मत करो। पिता कन्व हस्तिनापुर" के जानेवालों को आज्ञा दे रहे हैं ॥

(अनमूया सामग्री लिये आई)


अन० । मैं आई । चलो ॥ (दोनों गई) मि । (देखकर) वह देखो । शकुन्तला सूर्योदय का सिरस्नान करके खड़ी है और बहुत सी ऋषियों की स्त्री टोकरियों में तण्डुल लिये आशीस दे रही हैं । चलो। हम भी आशीस दे आवें ॥