पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
48
[ACT IV.
SAKUNTALA.


गये हैं । वृक्षों के पत्ते तेरे बिछोह की आंच से पीले हो होकर75 ऐसे गिरते हैं मानों आंसू टपके ॥

शकु । पिता आज्ञा दो तो इस माध्वीलता से भेट लूं । क्योंकि इस से मेरा बहिन का सा स्नेह है" ॥

कन्व । बेटी मिल ले77 । मैं भी तुम्हारे स्नेह को जानता हूं ।।

शकु० । (लता से भेटकर) हे वनज्योत्स्ना यद्यपि तू आम का आश्रय ले रही है तो भी भुजा पसारके मुझ से मिल ले। अब मैं तुझ से दूर जा पढूंगी78 । परंतु मन तुझी में रहेगा ! पिता इस लता को मेरे ही समान गिनियो ॥

कन्व । बेटी मेरे मन में बड़ी चिन्ता रहती थी कि तुझे अच्छा पति मिले । सो अपने सुकृतों से तैं ने योग्य वर पाया । अब मैं तेरी प्यारी लता का भी विवाह इस आम से जो उस के निकट मौर रहा है कर दूंगा । तू विलम्ब मत करे । बिदा हो ॥

शकु० । (दोनों सखियों के पास जाकर)हे सखियो प्यारी माथ्वी को मैं तुम्हें सौंपती हूं ॥

दो सखी । सखी हमें किस को सौंपे79 जाती है ॥ (दोनों ने सांसू डाल दिये)

कन्व । अनसूया इस समय रोना न चाहिये । शकुन्तला को धीरज बंधाओ ॥ (सब आगे को चले)

शकु० । हे पिता जब यह हरिणी जो गर्भ के बोझ से चलने में अलसाती है और आश्रम के निकट चरती है जने तब इस की कुशल कहला भेजना80 । भल मत जाना॥

कन्व । न भूलूंगा ॥

शकु० । (कुछ चल कर और फिरकर) यह कौन है जो मेरे अआंचल को नहीं छोड़ता है ॥ (फिर पौधे फिरकर देखा) कन्व । यह वही मृगछौना है जिस को रौं ने पुत्र सम8¹ पाला है। यह वही है जिस का मुंह जब कभी दाभ से चिर जाता था तू8²