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[ACT IV.
SAKUNTALA.


से अधिक हम क्या मांगें । और विशेष प्यार तौ भाग्य के आधीन है॥

सारथी । आप का संदेसा मैं ने भली भांति गांठ बांध लिया ।

कन्व । (शकुन्तला की ओर बड़े मोह में) हे पुत्री अब तुझे भी कुछ सीख दूंगा। क्योंकि यद्यपि हम वनवासी हैं तो भी लोक के व्यवहारों को भली भांति जानते हैं।

सारथी । विद्वान पुरुषों से क्या छुपा है ॥

कन्व । बेटी सुन । जब तू रनवास में वास पावे तब पति का आदर और गुरु जनों" की शुश्रूषा करियो । सौतों में सपत्नीभाव से मत रहियो । सहेली की भांति टहल करियो । कदाचित पति तिरस्कार भी करे तो भी उस को आज्ञा से बाहर मत द्वजियो । नौकर चाकरों को एक सा समझियो । और अपस्वार्थी मत द्वजियो । जो कुलवधू इस धर्म में चलती हैं वे अच्छी गृहस्थिती कहलाती हैं। और जो इस से विमुख होती हैं सो कुलकलङ्किनी होती हैं । जब पति संमुख आवे तो उठकर आदर कीजियो । और जो कुछ वचन वह कहे सो नम्रता से सुन लीजियो । उस के चरणों में दृष्टि रखियो और बैठने को आसन दीजियो । पति की सेवा आप कीजियो । उस से पीछे सोइयो और पहले जागियो । यह सब कुलवधुओं के मुख्य धर्म बड़ों ने कहे हैं। कहो गौतमी यह शिक्षा कैसी है ॥

गौ० । कुलवधुओं के लिये यह उपदेश बहुत श्रेष्ठ है । पुत्री इस को भूल मत जाना॥

कन्व । बेटी आ। मुझ से और अपनी सखियों से एक बेर फिर मिल ले॥

शकु० । क्या प्रियंवदा और अनमूया यहीं से आश्रम को लौट जायगीं।

कन्व। बेटी इन को लौट जाने की आज्ञा दे क्योंकि अभि जब तक कुआ- री हैं इन का नगर में जाना योग्य नहीं है। गौतमी तेरे संग जायगी॥