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ACT V.]
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SAKUNTALA.


इतने दिन" बिछुरे हो गये हैं । इस से उलहना देती है। मित्र तू जा हमारी ओर से कह दे कि रानी हम तेरी चेतावनी को समझे ॥

माढ० । जो आज्ञा महाराज की। (हौले से उठकर)परंतु तुम तो मित्र पकड़ना चाहते हो जैसे कोई तीक्षण बरछी की भाल को पराए हाथ से पकड़ना चाहे । मुझे यह अच्छा नहीं लगता है" कि रोसभरी स्त्री से ऐसा संदेसा जाकर कहं ॥

दुष्य० । जा सखा । तेरी चतुराई की बातें उस का रोस मिटा देंगी।

माढ० । धन्य है । अच्छा संदेसा दिया" । देखिये क्या हो" ॥ (बाहर गया)

दुष्य० । (आपही आप)यह क्या कारण है कि यद्यपि मुझे किसी स्नेही का वियोग नहीं है तो भी विरह का गीत ही सुनते" मेरे चित्त को उदासी हो आती है। यह कारण हो तो हो कि सुन्दर रूप देखकर और मधुर गान सुनकर मनुष्य को जन्मान्तर की प्रीति का स्मरण होता है ॥

द्वार० । (उदास होकर और आगे बढ़कर) महाराज की जय हो । हिमालय की तराई के वनवासी दो तपस्वी कुछ स्त्रियों समेत" आए हैं और कन्व मुनि का संदेसा लाए हैं। महाराज की क्या आजा है।

दुष्य० । (आश्चर्य मे) क्या तपस्वी स्त्रियों के साथ आए हैं ॥

द्वार० । हां महाराज ॥

दुष्य० । सोमराट से कह दो कि वनवासियों को वेद की विधि से सत्कार करके लिवा लावे। मैं भी उनसे भेटने योग्य स्थान में बैठता हूं।

द्वार० । जो आज्ञा ॥ (बाहर गया)

दुष्य० । कञ्चुकी हम को अग्निस्थान की गैल बताओ॥

कञ्चकी। महाराज यह गैल है। (आगे आगे" चला)यह द्वार जिस में दाभ विछे हैं और होमधेनु बंधी है अग्निहोतृस्थान का है । आप पधारिये ॥