पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
Act V.]
59
SAKUNTALA.

बातों को जानते हो। स्त्री कैसी ही सुशीलता से रहे48 फिर भी पति के होते,49 पीहर रहने में लोग चवाव करते हैं। इस लिये अब हमारी इच्छा है कि चाहे इस पर तुम्हारा प्यार हो चाहे50 न हो यह तुम्हारे ही घर रहे तो भली है॥

दुष्य॰। तुम क्या कहते हो। क्या मेरा इस का कभी विवाह हुआ है॥

शकु॰। (उदास होकर आप ही आप) अरे मन जो तुझे डर था सो ई आगे आया॥

शार्ङ्गरव। महाराज क्या अपने किये को पछताते हो51

दुष्य॰। तुम किस भरोसे पर52 इस निर्मूल कहानी को सच्ची बनाया चाहते हो॥

शार्ङ्गरव। (क्रोध से) जिन को ऐश्वर्य का मद होता है उन का चित्त स्थिर नहीं रहता॥

दुष्य॰। यह वचन तुम ने बहुत कठोर कहा॥

गौत॰। (शकुन्तला से) हे पुत्री अब बहुत लाज मत कर ला। मैं तेरा धूंघट खोल दूं जिस से तेरा भर्ता तुझे पहचान ले॥ (घूंघट खोल दिया)

दुष्य॰। (शकुन्तला को देखकर आप हो आप) जब मैं यह विचारता हूं कि इस सुन्दरी का पाणिग्रहण कभी आगे मैं ने किया है या नहीं तो मेरी गति उस भौरे की सी हो जाती है जो प्रातकाल ओस की बूंदभरे कुन्द पर भ्रमता है53 न छोड़ सके न बैठ सके॥

कञ्चुकी। (होले दुष्यन्त से) महाराज तो अपने धर्म और अधिकार में सावधान हैं। नहीं तो ऐसे स्त्रीरत्न को अपने रनवास में आने से कौन रोकता है॥

शार्ङ्गरव। महाराज चुप क्यों हो रहे हो॥

दुष्य॰। हे तपस्वी मैं वार वार मुध करता हूं परंतु स्मरण नहीं होता कि इस स्त्री से कब मेरा विवाह हुआ। और यह बात क्षवीधर्म से विरुद्ध है कि जिस को पराया गर्भ हो उसे मैं अपने रनवास में लूं॥

I2