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[Act V.
SAKUNTALA.

शकु॰। (आप ही आप) हे दैव जो मेरे संग ब्याह ही होने में संदेह है तो अब मेरी बहुत दिन की लगी आसा टूटी54

शार्ङ्गरव। महाराज ऐसे वचन मत कहो। जिस ऋषि ने तुम्हारे अपराध को भूल अपनी कन्या ऐसे भेज दी है जैसे कोई चोर के पास अपना धन भेज दे उस का अपमान मत करो॥

शारदत। शार्ङ्गरव तम ठहरो। शकुन्तला अब तू आप ही कछ पता बतलाकर अपने पति को सुध दिला। यह तुझे भूला जाता है॥

शकु॰। (आप ही आप) जो वह55 स्नेह ही न रहा तौ अब सुध दिलावे56 क्या होता57 है। और जो इस जीव को दुख ही बदा है तो कुछ बस नहीं है।58 परंतु इस से दो बातें तो अवश्य करूंगीं। (प्रगट) हे आर्य पुत्र (फिर रुक गई) और जो इस शब्द में कुछ संदेह है तौ हे पुरुवंशी यह तुम को उचित नहीं है कि आगे तपोवन में ऐसी प्रीति बढ़ाई और अब ये निठुर वचन कहते हो॥

दुष्य॰। (कान पर हाथ धरकर) क्या तू मुझ निर्दोषी को कलङ्क लगाने के लिये कुछ छल करती है। देखो जो नदी मर्याद छोड़कर चल दी है59 वह अपना ही तट खसाकर गदली होती है और तट के वृक्षों को गिराकर अपनी शोभा बिगाड़ती है।

शकु॰। जो तुम सुध भूलकर सत्य ही मुझे परनारी समझे हो तौ लो पते के लिये तुम्हारे ही हाथ की मुदरी देती हूं जिस में तुम्हारा नाम खुदा है॥

दुष्य॰। अच्छी बात बनाई60

शकु॰। (उंगली को देखकर) हाय हाय मुदरी कहां गई॥ (घड़ी व्याकुलता से गौतमी की ओर देखती हुई)

गौतमी। जब ते ने शक्रावतार61 के निकट शचीतीर्थ में जलाचमन किया था तब मुदरी गिर गई होगी॥

दुष्य॰। (मुसक्याकर) त्रियाचरित्र यही कहलाता है॥