SAKUNTALA.
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शकु । (आप ही आप) हे दैव जो मेरे संग ब्याह ही होने में संदेह है तो
अब मेरी बहुत दिन की लगी आसा टूटी" ॥
शाईरव । महाराज ऐसे वचन मत कहो। जिस ऋषि ने तुम्हारे
अपराध को भूल अपनी कन्या ऐसे भेज दी है जैसे कोई चोर के पास
अपना धन भेज दे उस का अपमान मत करो ॥
शारदत । शारव तम ठहरो । शकुन्तला अव तु आप ही कछ
पता बतलाकर अपने पति को सुध दिला । यह तुझे भूला जाता है ॥
शकु । (पाप ही पाप) जो वह स्नेह ही न रहा तौ अव सुध दिलावे
क्या होता है । और जो इस जीव को दुख ही बदा है तो कुछ
बस नहीं है। परंतु इस से दो बातें तो अवश्य करूंगीं । (प्रगट) हे
आर्य पुत्र (फिर रुक गई और जो इस शब्द में कुछ संदेह है तौ हे पुरुवंशी
यह तुम को उचित नहीं है कि आगे तपोवन में ऐसी प्रीति बढ़ाई
और अब ये निठुर वचन कहते हो ॥
दुष्य । (कान पर हाथ धरकर) क्या तू मुझ निर्दोषी को कलङ्क लगाने के
लिये कुछ छल करती है। देखो जो नदी मयाद छोड़कर चल दी है
वह अपना ही तट खसाकर गदली होती है और तट के वृक्षों को
गिराकर अपनी शोभा बिगाड़ती है ।
शकु । जो तुम सुध भूलकर सत्य ही मुझे परनारी समझे हो तौ
लो पते के लिये तुम्हारे ही हाथ की मुदरी देती हूं जिस में तुम्हारा
नाम खुदा है ॥
दुष्य । अच्छी बात बनाई ॥
शकु । (उंगली को देखकर) हाय हाय मुदरी कहां गई ॥ (घड़ी व्याकुलता से गौतमी
की ओर देखती हुई)
गौतमी। जब ते ने शक्रावतार के निकट शचीतीर्थ में जलाचमन
किया था तब मुदरी गिर गई होगी ॥
दुष्य । (मुसक्याकर) त्रियाचरित्र यही कहलाता है ॥
पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/७६
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