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Act V.]
61
SAKUNTALA.

शकु॰। यह62 विधि ने अपना बल दिखाया है। परंतु अभी एक पता और भी दूंगी॥

दुष्य॰। सो भी कहो॥

शकु॰। उस दिन की सुध है या नहीं जब आप ने माध्वीकुञ्ज में कमल के पत्ते से जल अपने हाथ में लिया

दुष्य॰। तब क्या हुआ॥

शकु॰। उसी छिन एक मृगछौना जिस को मैं ने पुत्र की भांति पाला था आ गया। आप ने बड़े प्यार से कहा कि आ बच्चे पहले तू ही पानी पी ले। उस ने तुम्हें विदेसी जान तुम्हारे हाथ से जल न पिया। मेरे हाथ से पी लिया। तब तुम ने हंसकर कहा कि सब कोई अपने ही संघाती को पत्याता है। तुम दोनों एक ही वन में वासी हो और एकप्ते मनोहर हो॥

दुष्य॰। चतुर स्त्रियों के मधुर वचनों ही से तो कामी मनुष्य के मन डिगते हैं।

गौतमी। बस राजा। ऐसे कटोर वचन कहने योग्य नहीं है। यह कन्या तपोवन में पली है। यह दुखिया छल क्या जाने॥

दुष्य॰। हे तपस्विनी विना सिखाए भी स्त्रीजाति63 की चतुराई पुरुषों से अधिक होती है। सो यह64 बात केवल मनुष्यों ही में नहीं है सब जीव जन्तु में है। और कदाचित65 स्त्री अच्छी सिखाई जांय तौ न जानिये क्या करें66। देखो कोयल अपने अण्डे बच्चे67 दूसरे पक्षियों से जिन से उस का कुछ संबन्ध नहीं है पलवाती है॥

शकु॰। (क्रोध करके) हे निर्लज्ज तू68 अपना सा कुटिल हृदय सब का जानता है69। तुझ सा पाखण्डी और कपटी राजा न कोई पृथी पै हुआ है न आगे होगा। तें ने धर्म के भेष में कपट ऐसे दुराया है मानो गहरे कूए का मुख घास फूस से ढका है॥

दुष्य॰। (आप ही आप) इस का कोप मेरे मन में संदेह उपजाता है कि