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[Act V.
SAKUNTALA.

उस का कहना कहीं सचा ही न हो70। रोस से इस की आंखें लाल हो गई हैं और जब कठोर वचन बोलती है तो मुख से शब्द टूटते हुए निकलते हैं। लाल होठ ऐसे कांपते हैं मानो तुषार का मारा71 बिम्बाफल और भौहें यद्यपि सीधी हैं परंतु रोस में टेढ़ी हो गई हैं। जब अपने साधारण रूप की छवि से यह मुझे न छल सकी तब रिस का मिस करके भृकुटी ऐसी चढ़ाई है मानो कामदेव के धनुष के दो टुकड़े किये हैं72। जो कदाचित73 यह दूसरे की स्त्री न होतो तो क्या आश्चर्य है कि इसी धनुष से मुझे घायल करती। (प्रगद) हे बाला दुष्यन्त के शील स्वभाव को सब जानते हैं। परंतु तेरा प्रयोजन क्या है। सो कह॥

शकु॰। (व्याजस्तुति की भांति74) हां सत्य है तुम राजालोग75 ही तो सब बात के प्रमाण होते हो और तुम ही76 यथार्थ धर्म और लोकरीति जानते हो। स्त्री दुखिया कैसी ही लाजवती और सुलक्षणी हो77 तो भी धर्म नहीं जानती है न सच बोलना जानती है। अच्छी घड़ी में मनभावते को ढूंढने आई और अच्छे मुहूर्त में पुरुवंशी राजा से व्याह हुआ। तेरे मीठे वचनों ने मेरे विश्वास को जीत लिया या। परंतु हृदय में छिपा हुआ वह अस्त्र निकला जिस से मेरे कलेजे को घाव लगा॥ (घूंघट करके रोने लगी)

शार्ङ्गरव। इस राजा को चपलता देखकर मेरा मन लजाता है। अब से79 जो कोई गुप्त संबन्ध करे उसे चाहिये कि पहले परीक्षा कर ले क्योंकि जो प्रीति विना स्वभाव पहचाने80 जुड़ जाती है थोड़े ही काल में बैर हो जाता है।

दुष्य॰। क्या तुम इस की चिकनी चुपड़ी बातों को प्रतीति करके मुझे घोर पाप में डाला चाहते हो।

शार्ङ्गरव। (अवज्ञा करके81) उत्तर था सो सुन लिया82। यहां इस कन्या को कि जिस ने जन्म भर छल का नाम भी नहीं सीखा है कौन