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Act VI.]
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SAKUNTALA.


कुम्भि॰। मुझ निरपराधी को क्यों मारना चाहिये॥

दू॰ पियादा। (देखकर) कोतवाल जी तौ वे11 आते हैं। राजा ने भला12 तुरंत ही निबेड़ा कर दिया। अव कुम्भिलक तू या तौ13 छूट ही जायगा नहीं तो कुत्तों गिद्धों का भक्षण बनेगा॥

(कोतवाल फिर आया)

कोत॰। धीमर को . . . .॥

कुम्भि॰। (घबराकर) हाय। अब मैं मरा॥

कोत॰। . . . . छोड़ दो। महाराज कहते हैं कि अंगूठी का वृत्तान्त हम जानते हैं। धीमर का कुछ अपराध नहीं है। इसे तुरंत छोड़ दो॥

दू॰ पियादा। जो आज्ञा14। आज यह चोर यम के घर से बच आया॥ (छोड़ दिया)

कुम्भि॰। (हाथ जोड़कर) आप ही ने मेरे प्राण बचाए हैं।

कोत॰। अरे जा। तरे भाग्य खुल गये15। राजा की आज्ञा है कि अंगूठी का पूरा मोल तुझे मिले। सो यह ले॥ (थैली धीमर को दी)

कुम्भि॰। (हाथ जोड़कर) मैं इस समय अपने तन में फूला नहीं समाता इं16

प॰ पियादा। फूला क्यों समायगा। तू सूली से उतरकर हाथी पर चढ़ा है॥

दू॰ पियादा। राजा के प्रसन्न होने का क्या कारण है। अंगूठी तो कुछ ऐसी बड़ी वस्तु नहीं है17

कोत॰। प्रसन्न होने का कुछ18 यह भी कारण है कि अंगूठी बड़े मोल की है। परंतु मुख्य हेतु मुझे यह जान पड़ा कि अंगूठी को देखकर राजा को अपने किसी प्यारे की सुध आ गई। क्योंकि यद्यपि राजा का स्वभाव गम्भीर है तो भी जिस समय अंगूठी देखी विकल होकर मूर्छा आ गई॥

दू॰ पियादा। तो आप ने राजा को बड़ा प्रसन्न किया॥

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