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[Act VI.
SAKUNTALA.


प॰ पियादा। हां। इस धीमर के प्रताप से॥ (धीमर की और कड़ी आखों से देखा)

कुम्भि॰। रिस मत हो। अंगूठी का आधा मोल मदिरा पीने को तुम्हें भी दूंगा॥

दो॰ पियादे। तौ तू हमारा मित्र है। मदिरा हम को बहुत प्रिय है। चलो। हम तुम साथ ही साथ हाट को चलें॥ (बाहर गये)

स्थान राजभवन की फुलवाड़ी॥

(मिश्रकेशी अप्सरा पवन में दिखाई दी)

मिश्रकेशी। एक करतब तो वह था जो मैं ने अप्सरातीर्थ पर किया। अब चलकर देखू राजर्षि की क्या दशा है। शकुन्तला मुझे बहुत प्यारी है काहे से कि वह मेरी सहेली की बेटी है। और मैं मेनका की आज्ञा से यह वृत्तान्त देखने आई हूं। (चारों ओर देखकर) आहा। आज उत्सव के दिन राजकुल में क्या उदासी छा रही है। मुझे यह तो सामर्थ्य है कि बिना प्रगट हुए भी22 सब वृत्तान्त जान लूं। परंतु मेनका की आज्ञा माननी चाहिये। इस लिये वृक्षों की ओट में बैठकर देखेंगी कि क्या होता है॥(उतरकर एक स्थान में बैठ गई)

(कामदेव को दी घेरी आम को मञ्जरी को देखती हुई साई)

प॰ चेरी। इस आम की हरी डाल पर नई मञ्जरी कोंका लेती कैसी शोभायमान है। मानो बसन्त की मूछी जगाने को संजीवनी आई है। इस में से एक डाली रति की भेट करूंगी॥

दू॰ चेरी। हे परभृतिका तू क्या आप ही आप कह रही है॥

प॰ चेरी। हे मधुकरी आम की मञ्जरी को देख कोकिला उन्मत्त होती ही है। सो तू जानती है कि मेरे नाम का भी कोकिला ही अर्थ है॥

दू॰ चेरी। (प्रसन्न होकर और निकट आकर) क्या प्यारी वसन्त ऋतू आ गई॥

प॰ चेरी। हां तेरे मधुर गीत गाने के दिन आ गये॥