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Act VI.]
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SAKUNTALA.


दू॰ चेरी। हे सखी कामदेव की भेट को मैं इस वृक्ष से सोंधे के गहने उतरूंगी। तू मुझे सहारा देकर उचका दे॥

प॰ चेरी। जो मैं सहारा दूंगी तो भेट के फल में से भी आधा लूंगी।

टू॰ चेरी। जो तू यह न कहती तो क्या आधा फल न मिलता। मुझे तुझे विधिना ने एक प्राण दो देह बनाया है॥ (एड़ी उचकाकरा वांए हाथ से डाल पकडी और दाहिने हाथ से मञ्जरी तोड़ी) अहा ये कलियां तो अभी खिली भी नहीं हैं । यह देखो। एक मञ्जरी खिल गई है। इस में कैसी सुहावनी महक आती है। (मुट्टी भरकर कलियां तोड़ ली) यह फूल कामदेव को बहुत प्यारा है। हे मञ्जरी युवतियों का हृदय छेदने को तू पञ्चशर का छठा बाण बनी है॥ (मन्नरी अर्पण कर दी)

(द्वारपाल आया)

द्वारपाल। (रिस होकर) हे बावली तू क्यों कच्ची कलियों को तोड़ती है। राजा ने तो आज्ञा दे दी है कि अब के बरस वसन्तोत्सव न हो।

दो॰ चेरी। (डरती हुई) अब का हमारा अपराध क्षमा करो। हम ने नहीं जाना था कि राजा ने ऐसी आज्ञा दी है।

द्वार॰। तुम ने न जाना। रूख पेड़ों और पशु पक्षियों ने भी तो राजा के साथ उदासी मानी है। देखो ये कलियां बहुत दिनों से निकली हैं परंतु खिलती नहीं हैं। और कुरवक का फल यद्यपि लग आया है परंतु अब तक कली ही बना है"। शिशिर बीतने को है तो भी कोकिला की बाणी वण्ठ ही में रुक रही है। देखो मदन ने धनुष पर चढ़ाने को आधा तीर निकालकर फिर रख लिया है॥

दो॰ चेरी। (आप ही आप) इस में संदेह नहीं है कि यह राजा ऐसा ही प्रतापी है।

प॰ चेरी। कुछ दिन से हम को गन्धर्वलोक के अधिकारी मित्रवसु ने राजा के चरण देखने को भेजा है। तब से हम राजा के उपवनों