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[Act VI.
SAKUNTALA.

में अनेक क्रीड़ा करती फिरती थीं। इस लिये राजा की यह आज्ञा हम ने नहीं सुनी॥

द्वार॰। हुआ सो हुआ"। फिर ऐसा मत करना॥

दो॰ चेरी। राजा की आज्ञा तो हम मानेहींगी। परंतु हे द्वारपाल जो हम इस वृत्तान्त के सुनने योग्य हों तौ कृपा करके बताओ कि राजा ने क्यों वसन्तोत्सव का होना बरजा है॥

मिश्रकेशी। (आप ही आप) राजाओं को राग रङ्ग सदा प्रिय होता है। इस लिये कोई बड़ा ही कारण होगा जिस से दुष्यन्त ने ऐसी आज्ञा दी है।

द्वार॰। (आप ही आप) यह तौ प्रसिद्ध बात है। इस के कह देने में क्या दोष है। (प्रगट) क्या शकुन्तला के त्याग का समाचार तुम्हारे कानों तक नहीं पहुंचा है॥

प॰ चेरी। हां। अंगूठी मिल जाने तक का" वृत्तान्त तौ हम ने गन्धर्वलोक के नायक से सुन लिया है॥

द्वार॰। तौ अब मुझे थोड़ा ही कहना पड़ेगा"। सो सुनो। जब अपनी अंगूठी को देखकर राजा को सुध आई तो तुरंत कह उठा कि शकुन्तला मेरी विवाहिता है। जिस समय मैं ने उसे त्यागा मेरी बुद्धि ठिकाने" न थी। फिर राजा ने बहुत विलाप और पछतावा किया और तभी से संसार को सब छोड़ बैठा है न तौ प्रजा के उपकार में चित्त लगता है न" दिन प्रतिदिन राजसभा होती है। रात रात भर नींद नहीं आती। सेज पर करवटें लेते" कटती हैं। भोर जब उठता है तो सीधी कोई बात मुख से नहीं निकलती। बिथा का मारा रनवास की स्त्रियों को शकुन्तला ही शकुन्तला कहकर पुकारता है। फिर लाज का मारा घुटने पर सिर रखकर बैठा रहता है।

मिश्रकेशी। (आप ही आप) यह बात तो मुझे बड़ी प्यारी लगी॥