SAKUNTALA.
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में अनेक कोड़ा करती फिरती थीं। इस लिये राजा की यह आज्ञा हम
ने नहीं सुनी ॥
द्वार। हुआ सो हुआ"। फिर ऐसा मत करना ॥
दो चेरी। राजा की आज्ञा तो हम मानेहींगी । परंतु हे द्वारपाल
जो हम इस वृत्तान्त के सुनने योग्य हों तौ कृपा करके बताओ कि राजा
ने क्यों वसन्तोत्सव का होना बरजा है ।
__ मिश्रकेशी । (आप ही लाप) राजाओं को राग रङ्ग सदा प्रिय होता है।
इस लिये कोई बड़ा ही कारण होगा जिस से दुष्यन्त ने ऐसी आज्ञा
दी है।
हार । (शाप हो पाप) यह तो प्रसिद्ध बात है । इस के कह देने में क्या
दोष है । (प्रगट) क्या शकुन्तला के त्याग का समाचार तुम्हारे कानों तक
नहीं पहुंचा है ॥
प. चेरी। हां । अंगूठी मिल जाने तक का" वृत्तान्त तौ हम ने
गन्धर्वलोक के नायक से सुन लिया है ॥
द्वार । तौ अब मुझे थोड़ा ही कहना पड़ेगा" । सो सुनो । जब
अपनी अंगूठी को देखकर राजा को सुध आई तो तुरंत कह उठा
कि शकुन्तला मेरी विवाहिता है । जिस समय मैं ने उसे त्यागा मेरी
बुद्धि ठिकाने " न थी । फिर राजा ने बहुत विलाप और पछतावा
किया और तभी से संसार को सब छोड़ बैठा है न तौ“ प्रजा के
उपकार में चित्त लगता है न" दिन प्रतिदिन राजसभा होती है।
रात रात भर नींद नहीं आती । सेज पर करवटें लेते" कटती
हैं। भोर जब उठता है तो सीधी कोई बात मुख से नहीं निकल-
ती। बिथा का मारा रनवास की स्त्रियों को शकुन्तला ही शकुन्तला
कहकर पुकारता है । फिर लाज का मारा घुटने पर सिर रखकर
बैठा रहता है।
मिश्रकेशो । (साप ही शाप) यह बात तो मुझे बड़ी प्यारी लगो ॥
पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/८६
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