दो कि हमारा विचार कुछ दिन के लिये58 नगर से चले जाने का59 है । इस से राजसिंहासन सूना रहेगा। जो कुछ काम काज प्रजासंबन्धी60 हो लिखकर हमारे पास भेज दिया करें।
कञ्चुकी । जो आज्ञा ॥ (बाहर गया)
दुष्य० । (द्वारपाल से) पर्वतायन तू अपने काम में असावधानी मत करियो॥
द्वार० । जो आज्ञा महाराज की ॥ (बाहर गया)
माढ० । अच्छा ।तुम ने इस जगह को निर्मल किया । अब इस रमणीक कुञ्ज में मन बहलाओ।।
दुष्य० । ठहे माढव्य जब कोई किसी को कुछ दोष लगावे और वह निरपराधी ठहरे तो दोष लगानेवाला कैसा दुख पाता है । देखो
मुनिसुता के स्नेह की सुध तब तो मुझे अज्ञान ने भुला दी । अब
दुखदाई मनोभव अपने धनुष पर आम की मञ्जरी का नया तीर
चढ़ाकर आया है।
माढ० । नेक धीरज धरो । मनोभव के तीरों को अभी लाठी से
तोड़े डालता6¹हुं " ॥ (साम की मन्नरियों को घुरने लगा)
दुष्य० । (ध्यान करता हुला) हां मैं ने ब्रह्मा का कर्तव्य जाना । (माढय मे) कहो मित्र अव कहां बैठ कर शकुन्तला की उनहारि की लताओं को देखू6² "॥
माढ० । वही सखी जो चित्रविद्या में बहुत चतर है और जिस से
आप ने कहा था कि इस माधीकुञ्ज में बैठकर हम मन बहलावेंगे
आती होगी और महारानी शकुन्तला का चित्र भी आप की आज्ञा नुसार6³ लावेगी॥
दुष्य० । चलो । प्यारी के चित्र ही से मन भर जायगा। कुञ्ज की गैल बताओ॥
माढ० । इस गैल आओ मित्र । (दोनों चले और पीछे पोछे मिश्रलेशी भी चली) यह माधीकुञ्ज जिस में मणिजटित पटिया बिछी है यद्यपि निर्जीव है