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Act VI.]
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SAKUNALA


से पूरा कर लेता हूं तब यह प्यारी की मोहनी मूर्ति की छाया देता है ॥

मिश्र ।(पाप हो आप) जैसी प्रीति है वैसा ही पछतावा भी है ॥

दुष्य । (आह भरकर) हाय जब वह आप मेरे संमुख आई तब मैं ने अनादर किया । अब उस के चित्र को इतना संमान देता हूं। मेरी गति उस बटोही की सी है जो नदी को त्याग प्यास का मारा मृगतृष्णा को दौड़ता है ॥

माढ० । यहां तो इतने चित्र लिखे हैं कि मेरे ध्यान में नहीं आती महारानी शकुन्तला कौन सी है ॥

मिश्रः । (आप हो आप) इस बूढ़े को शकुन्तला के सुन्दर रूप का ज्ञान नहीं है। इस से जान पड़ा कि जिन आंखों की ठगौरी में यह राजा बेसुध हुआ है उन की छाया इस पर कभी नहीं पड़ो ॥

दुष्य० । भला बतलाओ तो इन चित्रों में से तुम किस को शकुन्तला मानते हो॥


माढ० । (चित्रों को देखकर) सोच लूं तव बतलाऊंगा। तो यही शकुन्तला है जिस का शरीर थका हुआ दिखाई देता है । वस्त्र ढीले हैं । बांह शिथिलाई से गिरी पड़ती हैं । पसीने की बूंदें मुख पर ढलक रही हैं। अलकों से फूल गिरते हैं । और इस डहडहे आम के नीचे चौकी पर बैठी है। यही महारानी होगी और आसपासवाली सखी सहेली होंगी ॥


दुष्य० । माढव्य तू बड़ा प्रवीन है। परंतु देख । अभी इस चित्र में कुछ कसर" है । देखो । रङ्ग अच्छा नहीं भरा है। नहीं तो गालों पर आंसू की सी बूंद न गिरती । मैं ने प्यारी को विलाप करते देखना नहीं चाहा था । (चित्रवनानेवाली में) हे चतुरिका अभी यह चित्र पूरा नहीं बना है। जा फिर चित्रालय से बनाने की वस्तु ले आ॥