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ACT VI.]
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SAKUNTALA.


माढ॰। मित्र यह रानी अपने आधे मुख को पङ्कज सी हथेली से छपाए चकित सी क्यों हो रही है। आहा मैं जान गया। एक भौंरा मुख को कमल जान बैठा चाहता है॥

दुष्य॰। इस धृष्ट भौंरे को दूर करो॥

माढ॰। महाराज सब धृष्टों को दण्ड देने की सामर्थ्य आप ही को है॥

दुष्य॰। अरे भौंरे तू तौ फूली लताओं का पाहुना है। तू यहां अनादर होनें क्यों आया। देख। वहां जा जहां तेरी भौंरी भूखी प्यासी फूल पै बैठी बाट हेर रही है। बिना तेरे रस नहीं लेती॥

मिश्र॰। (आप ही आप) यह वचन है तो निरादर का। परंतु अच्छा कहा॥

माढ॰। महाराज भौंरे की ढिठाई तौ प्रसिद्ध है॥

दुष्य॰। (रिस होकर) रे भौंरे जो तू मेरी थारी के होठों को छूवेगा तौ कमल के उदर की बंधि में डाला जायगा। नहीं मानेगा॥

माढ॰। जब तुम ने ऐसा कड़ा दण्ड कहा तो क्यों न मानेगा। (हंसकर आप ही आप) यह तो सिड़ी हो गया है। इस के साथ रहने से मेरी भी दशा इसी की सी हुई जाती है॥

दुष्य॰। अरे मैं आज्ञा दे चुका। फिर भी तू नहीं हटता॥

मिश्र॰। (आप ही आप) प्रीति की अधिकाई में चतुर मनुष्य भी मूर्ख हो जाते हैं।

माढ॰। सखा यह चित्र का भौंरा है॥

मिश्र॰। (आप ही आप) आहा इस का इतना बेसुध होना यह चित्रविद्या की निपुनता का गुण है॥

दुष्य॰। हे निर्दई मैं तौ प्राणप्यारी के दर्शन का सुख लेता था। तू ने क्यों सुध दिलाई कि यह चित्र है॥ (रोता हुआ)

मिश्र॰। (आप ही आप) वियोगियों की यही दशा होती है। अब इस को सब ओर कण्टक ही दिखाई देते हैं॥