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ACT VI.]
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SAKUNTALA


द्वार॰। हां महाराज मुझे मिली तौ थीं। परंतु मेरे हाथ में चिट्ठी देखकर उलटी लौट गईं॥

दुष्य॰। रानी समय को पहचानती है और मेरे राज काज में विघ्न डालना नहीं चाहती॥

द्वार॰। महाराज मन्त्री ने यह बिनती की है कि आज मुझ को रुपया सम्हारने के काम से अवकाश न था। इस लिये केवल एक ही पुरकार्य किया है। सो बहुत सावधानी से इस पत्र में लिख दिया है। आप कृपा करके देख लें॥

दुष्य॰। पत्र मुझे दो। (पत्र लेकर पढ़ने लगा) महाराज के चरणों में यह निवेदन है कि धनवृद्ध नाम एक बड़ा साहूकार था। उस का बेटा मारा गया और वह भी समुद्र में डूब गया। कोई पुत्र उस के नहीं है और धन बहुत छोड़ा है। महाराज की आज्ञा हो तौ वह धन राजभण्डार में रखा जाय। (शोक में) आह निपुत्री होना मनुष्य को कैसी बुरी बात है। परंतु जिस के इतना धन था उस के स्त्री भी बहुत होंगी। इस लिये पहले यह पूछ लेना चाहिये कि उन स्त्रियों में से कोई गर्भवती है या नहीं॥

द्वार॰। मैं ने सुना है कि उस के एक स्त्री साकेतक सेठ की बेटी के इन दिनों गर्भाधान के संस्कार हुए हैं॥

दुष्य॰। यद्यपि बालक अब तक गर्भस्थ ही होवे तो भी अपने पिता के धन का वही अधिकारी होगा। जाओ मन्त्री से हमारी यह आज्ञा कह दो॥

द्वार॰। जो आज्ञा॥ (बाहर गया)

दुष्य॰। टहरो तौ॥

द्वार॰। (फिर आकर) आया॥

दुष्य॰। चाहे साहूकार के संतान हो चाहे न हो उस का धन राज में लगाना न चाहिये। जाओ यह ढंढोरा नगर में कर दो कि मेरी

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