Acr VI.]
44118
SAKUNTALI.
चतुः । महाराज इतना शोक न कीजिये । अभी आप की तरुण
अवस्था है। आप की रानियों के श्राप ही से यशस्वी पुत्र होंगे और
आप के पितरों को दुख न मिलने देंगे।
दुष्य० । (दुःख से) पुरु का वंश अब तक तौ फला फूला और शुद्ध रहा ।
परंतु अब मुझे प्राप्त होकर समाप्त हुआ जैसे सरस्वती नदी ऐसे
देश में जो उस की पवित्र धारा को बहने योग्य न था जाकर लोप
हुई है। ॥ (मूर्चित हो गया)
चत । (आप ही आप) महाराज सावधान इजिये ॥
मिश्र। (साप ही साप) मैं चलकर संभालं । नहीं। आप ही चैतन्य हो
जायगा। मैं ने देवजननी अप्सरा को शकुन्तला से यह कहते सना
था कि जैसे देवता अपना यज्ञभाग पाकर प्रसन्न हो जाते हैं तू भी
अपने पति के स्नेह से शीघ्र ही आनन्द पावेगी ॥ (उठकर चलो गर्ड)
(नेपथ्य में क्या ब्राह्मण की रक्षा करनेवाला कोई नहीं रहा ।।
दुष्यः । (सावधान होकर और कान लगाकर) अहा यह कौन माढव्य सा दुहाई
दे रहा है। कोई है । कोई है ॥
चतु । हो न हो" रानी की पिङ्गला इत्यादि सहेलियों ने उस
को चित्र हाथ में लिये आ पकड़ा है।
दुष्यः । चतुरिका तू जा मेरी ओर से रानी को ललकारकर कह दे
कि अपनी सखियों को क्यों नहीं बरजती है ॥
चतु । जो आज्ञा महाराज को ॥ (थाहर गई)
(झिर नेपथ्य में) मैं ब्राह्मण हूं। मेरे प्राण मत ले ॥
दुष्यः । निश्चय यह कोई ब्राह्मण आपत्ति में फसा है । हय रे कोई यहां॥
(यूढा चोयदार आया)
चोबदार। महाराज की क्या आज्ञा है ॥
दुय । देखो तो माढव्य का गला किप्त ने पकड़ा है ॥
चोब । अभी समाचार लाता हूं ॥ (बाहर गया और फिर का पता हुआ ret)
M
पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/९९
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
