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Act VI.]
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SAKUNTALA.


चतु॰। महाराज इतना शोक न कीजिये। अभी आप की तरुण अवस्था है। आप की रानियों के आप ही से यशस्वी पुत्र होंगे और आप के पितरों को दुख न मिलने देंगे।

दुष्य॰। (दुःख से) पुरु का वंश अब तक तौ फला फूला और शुद्ध रहा। परंतु अब मुझे प्राप्त होकर समाप्त हुआ जैसे सरस्वती नदी ऐसे देश में जो उस की पवित्र धारा को बहने योग्य न था जाकर लोप हुई है॥ (मूर्छित हो गया)

चतु॰। (आप ही आप) महाराज सावधान हुजिये॥

मिश्र॰। (आप ही आप) मैं चलकर संभालूं। नहीं। आप ही चैतन्य हो जायगा। मैं ने देवजननी अप्सरा को शकुन्तला से यह कहते सुना था कि जैसे देवता अपना यज्ञभाग पाकर प्रसन्न हो जाते हैं तू भी अपने पति के स्नेह से शीघ्र ही आनन्द पावेगी॥ (उठकर चलो गई)

(नेपथ्य में) क्या ब्राह्मण की रक्षा करनेवाला कोई नहीं रहा॥

दुष्य॰। (सावधान होकर और कान लगाकर) अहा यह कौन माढव्य सा दुहाई दे रहा है। कोई है। कोई है॥

चतु॰। हो न हो" रानी की पिङ्गला इत्यादि सहेलियों ने उस को चित्र हाथ में लिये आ पकड़ा है।

दुष्य॰। चतुरिका तू जा मेरी ओर से रानी को ललकारकर कह दे कि अपनी सखियों को क्यों नहीं बरजती है॥

चतु॰। जो आज्ञा महाराज को॥ (बाहर गई),

(फिर नेपथ्य में) मैं ब्राह्मण हूं। मेरे प्राण मत ले॥

दुष्य॰। निश्चय यह कोई ब्राह्मण आपत्ति में फसा है । हय रे कोई यहां॥

(बूढ़ा चोयदार आया)

चोबदार। महाराज की क्या आज्ञा है॥

दुष्य॰। देखो तो माढव्य का गला किस ने पकड़ा है॥

चोब॰। अभी समाचार लाता हूं॥ (बाहर गया और फिर का आता हुआ)

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