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अध्याय २४ : बैरिस्टर तो हुए-लेकिन आगे?


का एक खिलौना था। और वह इस बातको बड़ी अच्छी तरह सिद्ध कर रहा था कि जबतक हम मोहाधीन हैं तबतक हम भी बालक ही हैं। बस, इसे भले ही हम उसकी उपयोगिता कह लें।

२४

बैरिस्टर तो हुए-लेकिन आगे

परंतु जिस कामके लिए, अर्थात् बैरिस्टर बननेके लिए मैं विलायत गया था, उसका क्या हुआ? मैंने उसका वर्णन आगेके लिए छोड़ रक्खा था। पर अब उसके संबंधमें कुछ लिखनेका समय आ पहुंचा हैं।

बैरिस्टर बननेके लिए दो बातें आवश्यक थीं-एक तो 'टर्म' भरना, अर्थात् सत्रोंमें आवश्यक हाजिरी होना; और दूसरे कानूनकी परीक्षामें शरीक होना। सालमें चार सत्र होते थे। वैसे बारह सत्रोंमें हाजिर रहना जरूरी था। सत्रमें हाजिर रहनेके मानी हैं 'भोजोंमें उपस्थित रहना।' हरेक सत्रमें लगभग २४ भोज होते हैं, जिनमेंसे छ:में हाजिर रहना जरूरी था। भोजमें जानेसे यह मतलब नहीं कि वहां कुछ खाना ही चाहिए; सिर्फ निश्चित समयपर वहां हाजिर हो जाना और जबतक वह चलता रहे वहां उपस्थित रहना काफी था। आमतौरपर तो सभी विद्यार्थी उसमें खाते-पीते हैं। भोजनमें अच्छे-अच्छे पकवान होते और पेयमें ऊंचे दरजेकी शराब। दाम अलबत्ता देने पड़ते थे। पर यह ढाई या तीन शिलिंगके करीब, अर्थात् दो या तीन रुपयेसे ज्यादा नहीं होता था। यह रकम वहां बहुत ही कम समझी जाती थी; क्योंकि बाहरके किसी भी भोजनालयमें भोजन करनेवालेको तो सिर्फ शराबके लिए ही इतने दाम देने पड़ते थे। भोजनके खर्चकी बनिस्बत शराब पीनेवालेको शराबके ही दाम अधिक लगते हैं। हिंदुस्तान में-यदि हम नये ढंगके सुधारक न हों तो-हमें यह बड़ा ही आश्चर्यजनक मालूम होगा। विलायत जानेपर जब यह बात मालूम हुई तो मेरे दिलको बड़ी चोट पहुंची। मैं नहीं समझ सका कि शराबके पीछे इतने रुपये खर्च करनेको लोगोंका जी कैसे होता है। पर पीछे मैं उनका रहस्य समझने लगा। शुरूमें तो मैं ऐसे भोजोंमें कुछ भी नहीं खाता था; क्योंकि मेरे कामकी चीज तो वहां