पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
८८
आत्म-कथा : भाग १


दौड़ गई और बोले-

"तुम्हारी कठिनाईको अब मैं समझ पाया। तुम्हारा सामान्य ज्ञान बहुत ही कम है। तुम्हें दुनियाका ज्ञान नहीं है। इसके बिना वकीलका काम नहीं चलता। तुमने तो भारतका इतिहास भी नहीं पढ़ा। वकीलको मनुष्यस्वभावका परिचय होना चाहिए। उसे तो चेहरा देखकर आदमीको पहचानना आना चाहिए। दूसरे, हर भारतवासीको भारतवर्षके इतिहासका भी ज्ञान होना जरूरी है। यों वकालत के साथ इसका कोई संबंध नहीं है; किंतु उसका ज्ञान तुम्हें होना चाहिए। मैं देखता हूँ कि तुमने 'के' तथा 'मैलेसन' की १८५७ के गदरपर लिखी पुस्तक भी नहीं पढ़ी है। उसे तो फौरन् ही पढ़ लेना। मैं दो पुस्तकोंके नाम और बतलाता हूँ। उन्हें मनुष्यको पहचाननेके लिए जरूर पढ़ डालना।" यह कहकर उन्होंने लॅवेटर तथा शेमलपेनिककी 'मुख सामुद्रिक विद्या' (फिजियॉग्नामी) विषयक दो पुस्तकोंके नाम लिख दिये।

इन बुजुर्ग मित्रका मैंने खूब अहसान माना। उनके सामने तो एक क्षणके लिए मेरा डर भाग गया, किंतु बाहर निकलते ही फिर चिंता शुरू हुई। 'चेहरा देखकर आदमी पहचान लेना' इस वाक्यको गुनगुनाता और उन दो पुस्तकोंका विचार करता-करता घर पहुँचा। दूसरे ही रोज लॅवेटरकी पुस्तक खरीद ली। शेमलपेनिककी किताब उस दुकानपर न मिली। लॅवेटरकी पुस्तक पढ़ी तो सही; किंतु वह तो स्नेल की 'इक्विटी' की अपेक्षा भी कठिन मालूम हुई। दिलचस्पभी बहुत कम थी। शेक्सपियरके चेहरेका अध्ययन किया, लेकिन लंदनकी सड़कों पर घूमते-फिरते शेक्सपियरोंको पहचानकी शक्ति बिलकुल न पाई।

लॅवेटरकी पुस्तकसे मुझे ज्ञान नहीं मिला। मि॰ पिंकटकी सलाहकी अपेक्षा उनके स्नेहसे बहुत लाभ हुआ। उनकी हंसमुख तथा उदार मुखमुद्राने मेरे दिलमें जगह करली। उनके इस वचन पर, कि वकालत करनेके लिए फीरोजशाह मेहताके समान निपुणता, स्मरणशक्ति आदीकी आवश्यकता नहीं होती, प्रामाणिकता व श्रमशीलतासे काम चल जायगा, मेरा विश्वास बैठ गया। इन दो चीजोंकी पूंजी तो मेरे पास काफी थी। अतः दिलकी गहराईमें कुछ आशा बंधी।

'के' तथा 'मैलेसन' की पुस्तकको मैं विलायतमें न पढ़ पाया। किंतु