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पिछले अध्यायमें मैं लिख चुका हूं कि बंबई-बंदरपर समुद्र क्षुब्ध था। जून-जुलाईमें हिंद-महासागरमें यह कोई नई बात नहीं होती। अदनसे ही समुद्रका यह हाल था। सब लोग बीमार पड़ गये थे- अकेला मैं मौजमें रहा था। तूफान देखनेके लिए डेकपर रहता और भीग भी जाता। सुबह भोजनके समय यात्रियोंमें हम एक ही दो नजर आते। हमें ओटकी पतली लपसी की रकाबीको गोदमें रखकर खाना पड़ता था; वर्ना हालत ऐसी थी कि लपसी गोदमें ही ढुलक पड़ती।
यह बाहरी तूफान मेरे लिए तो अंदरके तूफानका चिह्न-मात्र था। परंतु बाहरी तूफान के रहते हुए भी मैं जिस प्रकार अपनेको शांत रख सकता था, वही बात आंतरिक तूफानके संबंधमें भी कही जा सकती है। जातिवालोंका सवाल तो सामने था ही। वकालतकी चिंताका हाल पहले ही लिख चुका हूं। फिर मैं ठहरा सुधारक। अतः मनमें कितने ही सुधार करनेके मनसूबे बांध रक्खे थे। उनकी भी चिंता थी। एक और अकल्पित चिंता खड़ी हो गई।
माताजीके दर्शन करनेके लिए मैं अधीर हो रहा था। जब हम डॉकपर पहुंचे तो मेरे बड़े भाई वहां मौजूद थे। उन्होंने डाक्टर मेहता तथा उनके बड़े भाईसे जान-पहचान कर ली थी। डाक्टर चाहते थे कि मैं उन्हींके घर ठहरूं, सो वह मुझे वहीं लिवा ले गये। इस तरह विलायतमें जो संबंध बंधा था वह देशमें भी कायम रहा। यही नहीं, बल्कि अधिक दृढ़ होकर दोनों परिवारोंमें फैला।
माताजीके स्वर्गवासके बारेमें मैं बिलकुल बेखबर था घर पहुंचनेपर मुझे यह समाचार सुनाया और स्नान कराया गया। यह खबर मुझे विलायतमें भी दी जा सकती थी; पर इस विचारसे कि मुझे आघात कम पहुंचे मेरे बड़े भाईने बंबई पहुंचने तक मुझे खबर न पहुंचानेका ही निश्चय किया। अपने इस