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अध्याय १ : रायचंदभाई


दु:खपर मैं परदा डालना चाहता हूं। पिताजीकी मृत्युसे अधिक आघात मुझे इस समाचार को पाकर पहुंचा। मेरे कितने ही मनसूबे मिट्टीमें मिल गये। पर मुझे याद है कि इस समाचार को सुनकर मैं रोने-चीखने नहीं लगा था। आंसू-तकको प्राय: रोक पाया था। और इस तरह व्यवहार शुरू रक्खा, मानो माताजीकी मृत्यु हुई ही न हो।

डाक्टर मेहताने अपने घरके जिन लोगोंसे परिचय कराया, उनमेंसे एकका जिक्र यहां किये बिना नहीं रह सकता। उनके भाई रेवाशंकर जगजीवन के साथ तो जीवन-भरके लिए स्नेह-गांठ बंध गई। परंतु जिनकी बात मैं कहना चाहता हूं वह तो हैं कवि रायचंद्र अथवा राजचंद्र। वह डाक्टर साहब के बड़े भाईके दामाद थे और रेवाशंकर जगजीवनकी दुकानके भागीदार तथा कार्यकर्ता थे। उनकी अवस्था उस समय २५ वर्षसे अधिक न थी। फिर भी पहली ही मुलाकातमें मैंने यह देख लिया कि वह चरित्रवान् और ज्ञानी थे। वह शतावधानी माने जाते थे। डाक्टर मेहताने कहा कि इनके शतावधानका नमूना देखना। मैने अपने भाषा-ज्ञानका भंडार खाली कर दिया और कविजीने मेरे कहे तमाम शब्दोंको उसी नियमसे कह सुनाया, जिस नियमसे मैंने कहा था। इस सामर्थ्यपर मुझे ईर्ष्या तो हुई; किंतु उसपर मैं मुग्ध न हो पाया। जिस चीज पर मैं मुग्ध हुआ उसका परिचय तो मुझे पीछे जाकर हुआ। वह था उनका विशाल शास्त्रज्ञान, उनका निर्मल चरित्र और आत्म-दर्शन करनेकी उनकी भारी उत्कंठा। मैने आगे चलकर तो यह भी जाना कि केवल आत्म-दर्शन करनेके लिए वह अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।

हसतां रमतां प्रगट हरि देखूं रे
मारुं जीव्यूं सफल तब लेखूं रे;
मुक्तानंद नो नाथ बिहारी रे
ओघा जीवनदोरी अमारी रे।[१]

  1. भावार्थ यह कि मैं अपना जीवन तभी सफल समझूंगा, जब मैं हंसते-खेलते ईश्वरको अपने सामने देखूंगा। निश्चय-पूर्वक यही मुक्तानंद की जीवन-डोरी है। -अनु०